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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः ३३३ "स्वसंवित्तिमात्रवादः साधीयान यदि तमंन्तनिलीनो बोधो नीलादेन बोधकः किन्तु स्वप्रकाश एवासौ, तथा सति 'नीलमहं वेद्मि' इति कर्म-कर्तृ भावाभिनिवेशी प्रत्ययो न भवेत् , विषयस्य कर्म-कर्तृभावस्याऽभावात्" । ननु विषयमन्तरेणापि प्रत्ययो दृष्ट एव यथा शुक्तिकायां रजतावगमः। अथ बाधकोदयात पनभ्रान्तिरसौ. नीलादौ त कर्मतादेन बाधास्तीति सत्यता। नन्वत्रापि बाध ऽसंसक्तस्य द्वयस्य स्वातन्त्र्योपलम्भोऽस्ति बाधकः कर्म-कर्तभावोल्लेखस्य । अथ किमस्या भ्रान्तनिबन्धनम् ? नहि भ्रान्तिरपि निर्बीजा भवति । ननु पूर्वभ्रान्तिरेवोत्तरकर्म-कर्तृ भावावगतेनिबन्धनम, पूर्वभ्रान्तिकर्मतादेरपि अपरा पूर्वभ्रान्तिरित्यनादिर्धान्तिपरम्परा, कर्मतादिन तत्वम् । [ग्रहणक्रिया असिद्ध होने से नीलादि में कमता अघटित ] यदि यह कहा जाय-नीलादि और विज्ञान का प्रतिभास तुल्यकालीन होने पर भी विज्ञान से ही नीलादि की ग्रहणक्रिया का उपक्रम किया जाता है, अत: विज्ञान ही ग्राहक है, नीलादि ग्राह्य है। यह भी युक्तिसंगत नहीं है । कारण, नील एवं विज्ञान से व्यतिरिक्त किसी ग्रहणक्रिया का कभी अनुभव नहीं होता । जैसे देखिये, भीतर में सुख के अधिष्ठान रूप में विज्ञान का और बाहर स्पष्ट रूप से भासमानस्वरूप वाले नीलादि का अवभास होता है किन्तु ग्रहणक्रिया का प्रतिभास न तो भीतर होता है न बाह्य में । जब ग्रहणक्रिया का अवभास ही नहीं होता तो क्रिया से व्याप्यमानरूप में नीलादि की कर्मता भी अयुक्त है । किसी के उपर क्रिया का लागू होना- यही क्रिया की व्याप्यमानता है और जिसके ऊपर क्रिया व्याप्यमान हो वह उस कर्म कहा जाता है । प्रस्तुत में ग्रहणक्रिया सिद्ध न होने से नीलादि को उसका कर्म यानी ग्राह्य नहीं मान सकते। [ ग्रहण क्रिया के स्वीकार में बाधक ) नीलादि और विज्ञान से व्यतिरिक्त क्रिया का स्वीकार करने पर भी दो प्रश्न का समाधान नहीं है-(१) उसकी प्रतीति स्वत: होती है (२) या परत: ? (१) यदि ग्रहणक्रिया स्वतः प्रतिभासित होती है तो अब विज्ञान, नीलादि और क्रिया-तीनों का अपने अपने स्वरूप में अवस्थितरूप से एक ही काल में प्रतिभास होगा-तो कर्ता-कर्म और क्रिया इस रूप से किसी का भी व्यवहार कैसे होगा? (२) यदि क्रिया की प्रतीति परत: मानते हैं-तो पर यानी अन्य ग्रहणक्रिया को मानना होगा, वरना, उस प्रथम क्रिया में परतः ग्राह्यता ही सिद्ध नहीं होगी। उपरांत, दूसरी क्रिया उसक ग्राहक हुई तो ग्राह्यक्रिया ग्राहकक्रिया का कर्म तभी बनेगी जब तीसरी ग्रहणक्रिया का स्वीकार करें, क्योंकि उसके विना प्रथम-द्वितीय क्रिया में क्रमश: ग्राह्य-गाहकता नहीं हो सकेगी । इस प्रकार नयी नयी ग्रहणक्रिया की कल्पना का कहीं अन्त नहीं आयेगा । अतः विज्ञान और नील से व्यतिरिक्त कोई ग्रहणक्रिया है नहीं, क्योंकि उसका स्वरूप अवभासित नहीं होता। निकष:- अन्तर्मुखरूप से जो विज्ञान रूप संवेदन है और बहिर्मुखरूप से जो नीलादि है, दोनों स्वप्रकाश ही सिद्ध होते हैं। तात्पर्य, नीलादि जड नहीं किन्तु विज्ञानस्वरूप ही है। [कर्मकतं भारप्रतीति भ्रान्त है ] बाह्मवादी:- यदि स्वसंवेदनमात्र का प्रतिपादन अच्छा हो तब फलित यह होगा कि अन्तर्वर्ती विज्ञान बहिर्वृत्ति नीलादि का बोधक नहीं है किन्तु नीलादि स्वयं ही प्रकाशित होते हैं । इस स्थिति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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