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________________ ३३४ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ अथवा 'नीलम्' इति प्रतीतिस्तावन्मात्राध्यवसायिनी पृथक्, 'अहम्' इत्यपि मतिरन्तरुल्लेखमुद्वहन्ती भिन्ना, 'वेद्मि' इत्यपि प्रतीतिरपरैव ततश्च परस्पराऽसंसक्तप्रतीतित्रितयं क्रमवत् प्रतिभाति न कर्म-कर्तृ भावः, तुल्यकालयोस्तस्याऽयोगात् भिन्नकालयोरप्यनवमासनान्न कर्मतादिगतिः कथश्वित् सम्भविनी । अथापि दर्शनात् प्राक् सन्नपि नीलात्मा न भाति तदुदये च भातीति कर्मता तस्य । नैतदपि साधीय:, यतः प्राग् भावोऽर्थस्य न सिद्धः । दर्शनेन स्वकालावधेरर्थस्य ग्रहणाद् दर्शनकाले हि मामाति न तु ततः प्राक्, तत् कथं पूर्वभावोऽर्थस्य सिध्येत् तस्य दर्शनस्य पूर्वकाले विरहात् ? न च तत्काले दर्शनं प्रागर्थसन्निधि व्यनक्ति, सर्वदा तत्प्रतिभासप्रसंगात् । अथाऽन्येन दर्शनेन प्रागर्थः प्रतीयते ननु तद्दर्शनादपि प्राक् सद्भावोऽर्थस्यान्येनावसेय इत्यनवस्था । तस्मात् सर्वस्य नीलादेर्दर्शनकाले प्रतिभासनान तत्पूर्वं सत्ता सिध्यति । में "मैं नील को जानता हूँ' इस प्रकार की कर्म-कर्तृ भाव से अभिनिविष्ट यानी गर्भित प्रतीति न हो सकेगी, कारण, कर्मकर्तृ भाव किसी भी विषय का धर्म नहीं है । विज्ञानवादो:- नीलादि और विज्ञान में कर्म-कर्तृ भाव प्रतीत होता है इतने मात्र से कर्मकर्तृभाव वास्तविक नहीं हो जाता क्योंकि विषय के विना भी कितनी प्रतीतियाँ उत्पन्न हो जाती है जैसे सीप में रजतबुद्धि रजत के बिना भी होती है । बाह्यवादी :- वहाँ तो पीछे 'यह रजत नहीं है' इस प्रकार का बाधक ज्ञान होता है अतः सीप में रजतबुद्धि भ्रान्तिस्वरूप है, किन्तु नीलादि में होने वाली कर्मत्वादि की बुद्धि तो सत्य ही है क्योंकि उसके पीछे कोई बाधक ज्ञान होता नहीं है । विज्ञानवादी:- नीलादि और विज्ञान का, दोनों का अपना अपना स्वतन्त्र बोध एक दूसरे के स्वरूप से अनुपरक्तरूप से होता है, यह स्वतन्त्रबोध ही कर्म-कर्तृ भाव के उल्लेख का बाधक होगा, क्योंकि कर्म-कर्तृ भाव एक दूसरे पर अवलम्बित है । बाह्यवादी:- कोई भी भ्रान्ति दोषमूलक ही होती है तो यहाँ कर्मकर्तृ भाव का उल्लेख यदि भ्रान्त हो तो वहाँ कौन सा दोष भ्रमत्वापादक है ? विज्ञानवादी :- भ्रम का मूल पूर्वभ्रम ही होता है तो यहाँ भी पूर्वकालीन कर्म-कर्तृभाव की भ्रान्ति ही उत्तरकालीन कर्मकर्तृभाव की भ्रान्ति का कारण है । पूर्वकालीन भ्रान्ति में कर्मतादि का कारण उससे भी पूर्वकालीन भ्रान्ति है, इस प्रकार यह भ्रान्तिपरम्परा अनादि काल से चली आ रही है । अतः कर्मता, कर्तृ तादि वास्तव 'तत्त्व' नहीं है । [ कर्मकर्तृभाव की प्रतीति भी अनुपपन्न ] कर्म-कर्तृभाव वास्तव न होने में दूसरा भी विकल्प है- 'नीलम्' इस प्रकार केवल नीलमात्र की अवभासक एक अलग प्रतीति है । तथा, 'अहम्' इसप्रकार आन्तरिक उल्लेख को धारण करती हुई एक अलग प्रतीति है । और 'वेद्मि' इस प्रकार ज्ञान की एक अलग प्रतीति है । परस्पर अमिलितरूप में ये तीनों प्रतीति क्रमश: "मैं नील को जानता हूँ" इस प्रकार होती है, किन्तु कमकर्तृ भाव तो कहीं भी प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उन तीन प्रतीतियों को समानकालीन मानने पर कर्म-कर्तृ भाव नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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