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________________ ३३२ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ यतः 'अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति' [ ] इत्यादिना स्वसंविदितत्वं ज्ञानस्य प्रसाधयन्तः एतत्पक्षं निराकरिष्यामः । नापि ज्ञानान्तरवेद्यः, श्रनवस्थादिदूषणस्यात्र पक्षे प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् । स्वसंवेदनपक्षे तु यथाऽन्तनिलीनो बोधः स्वसंविदितः प्रतिभाति तथा तत्काले स्वतन्त्रयोः प्रतिभासनात् सव्येतरगोविषाणयोरिव न वेद्य-वेदकभावः । समानकालस्यापि बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वे नीलस्यापि तं प्रति ग्राहकताप्रसंग: । 'समानकालप्रतिभासाऽविशेषेऽपि बुद्धिर्नीलादीनां ग्रहणमुपरचयतीति ग्राहिका, नीलादयस्तु ग्राह्याः' - नैतदपि युक्तम्, यतो नील- बोधव्यतिरिक्ता न ग्रहणक्रिया प्रतिभाति । तथाहि - बोध: सुखास्पदीभूतो हृदि, बहिः स्फुटमुद्भासमानतनुश्च नीलादिराभाति न त्वदरा ग्रहणक्रिया प्रतिभासविषयः । तदनवभासे च न तया व्याप्यमानतया नीलादेः कर्मता युक्ता । भवतु वा नील बोधव्यतिरिक्ता क्रिया, तथापि किं तस्या अपि स्वतः प्रतीति:, यद्वाऽन्यतः ? तत्र यदि स्वतोग्रहणक्रिया प्रतिभाति तथा सति बोधः, नीलम्, ग्रहणक्रिया चेति त्रयं स्वरूपनिमग्नमेककालं प्रतिभातीति न कर्तृकर्म - क्रियाव्यवहृतिः । अथाऽन्यतो ग्रहणक्रिया प्रतिभाति । ननु तत्राप्यपरा ग्रहण क्रियोपेया, अन्यथा तस्या ग्राह्यताऽसिद्धेः पुनस्तत्राप्यपरा कर्मतानिबन्धनं क्रियोपेयेत्यनवस्था । तन्न ग्रहणक्रियाऽपराऽस्ति, तत्स्वरूपानवभासनात् । ततश्चान्तः संवेदनम् बहिनलादिकं च स्वप्रकाशमेवेति । नीलादि और संवेदन का अभेद प्रत्यक्षसिद्ध ही है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नीलादि और सुखादि संवेदनाभिन्न होने से स्वप्रकाशात्मक ही भासित होते हैं, क्योंकि नीलादि सुखादि से भिन्नरूप में भासित नहीं होता अतः संवेदनभिन्न नीलादि की सत्ता नहीं है । [ भेदपक्ष में नीलादि में ग्राह्यत्व की अनुपपत्ति ] अथवा, नीलादि से संवेदन का भेद मान लिया जाय तो भी नीलादि में विज्ञानग्राह्यता संगत नहीं है । जैसे देखिये - विज्ञानग्राह्यता मानने पर दो प्रश्न उठते हैं (?) समानकालीन विज्ञान नीलादि का प्रकाशक है या (२) भिन्नकालीन ? पहले विकल्प के ऊपर भी दो प्रश्न हैं- (A) समानकालीन विज्ञान परोक्ष है या (B) स्वयंप्रकाशी है ? (A) परोक्ष विज्ञान वाला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि आगे चलकर "परोक्ष विज्ञान स्वतः प्रत्यक्ष न होने पर उससे अर्थ के प्रकाश की सिद्धि शक्य नहीं है" इत्यादि प्रस्ताव से जब ज्ञान का स्वतः प्रकाशत्व सिद्ध किया जायेगा तब विज्ञानपरोक्षता का निराकरण किया जाने वाला है । विज्ञान को परोक्ष भी न माने और स्वयंसंविदित भो न माने किन्तु अन्य ज्ञान से वेद्य यानी अन्य ज्ञान से उसका प्रत्यक्ष मानेगे तो वह भी अशक्य है क्योंकि इस पक्ष में अनवस्थादि दोषों का संपात दिखाया जाने वाला है । (B) यदि विज्ञान को स्वयंसंविदित मानेंगे तो निलादि और विज्ञान का वेद्य-वेदक भाव ही नहीं घटेगा, क्योकि जैसे अन्तर्मुखरूप से स्वसंविदित ज्ञान का जिस काल में भास होता है, उसी तरह उसकाल में नीलादि भी स्वतः प्रकाशस्वरूप और बाह्य देश के संबन्धीरूप में भासित होते हैं - इस प्रकार जब दोनों प्रतिभास समानकालीन हुए ता समानकाल में उत्पन्न दायें-बाय गोविषाण में जैसे वेद्य-वेदक भाव नहीं होता उसी प्रकार समानकाल में भासमान नीलादि और विज्ञान में भी वेद्य वेदक भाव नहीं घट सकता । फिर भी यदि समानकालान विज्ञान को भासमान निलादि का ग्राहक कहेंगे तो दूसरे वादी समानकालीन भासमान नीलादि को हो विज्ञान का ग्राहक कह सकेगे जो आपको अनिष्ट है - यह अतिप्रसंग होगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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