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________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः ३२३ किं च प्रमाणविषयत्वेऽप्यपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? 'ज्ञातृतया स्वरूपेणावभासनम्' इति चेत् ? घटादयोऽपि कि पररूपतया प्रतीतिविषयाः ? अतो यद यस्य रूपं तत प्रमाणविषयत्वेऽप्यवसीयते इति न ज्ञानाविषयता प्रमातुः। तथाहि-तस्य ज्ञातृता प्रमातृताऽऽत्मस्वरूपता, घटादेः प्रमेयता ज्ञेयता घटादिरूपता, अतो यथा तस्य स्वरूपेणावभासनान्नाऽप्रत्यक्षता, तद्वदात्मनोऽपि । अभ्युपगमनीयं चैतत् । अन्यथाऽऽत्मादिस्वसंवेदनस्य प्रत्यक्षस्यापि प्रत्यक्षादि लक्षणव्यतिरिक्तं लक्षणान्तरं वक्तव्यम् , तथा च प्रमाणेयत्ताव्याघातः, केनचित् प्रत्यक्षादिलक्षणेनात्मादिविषयस्य स्वसंवेदनस्याऽसंग्रहात्। ___ इतोऽप्युक्तं-प्रमातृवत फलेऽपि संवेदनाभ्युपगमप्रसंगाव । 'तथाऽभ्युपगमाददोषः' इति चेत् ? तथा चोक्तम्-“संवित्तिः संवित्तितयैव संवेद्या न संवेद्यतया" [ ] इति । एतत प्राक् प्रति भिन्न प्रकार की होती है, इससे यह आपादन शक्य नहीं है कि जैसे प्रदीपादि को अन्य प्रकाश की अनावश्यकता है, वैसे आत्मा को किसी भी इन्द्रियादि की आवश्यकता नहीं है । विना साधन किसी का भी प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता। दूसरा पक्ष 'अपनी ही प्रतीति में व्यापार का होना'-यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि आत्मा की प्रतीति में आत्मा के किसी भी प्रकार के व्यापार का दर्शन यानी उपलम्भ नहीं होता। कर्मभूत घटादि के निर्माण में जैसे कुलालादि कर्ता सक्रिय देखा जाता है, अथवा कर्मभूत काष्ठादि के छेदन में जैसे कुठारादि करण सक्रिय देखा जाता है वैसे आत्मा के प्रकाशनार्थ आत्मा में कोई भी पदार्थ सक्रिय नहीं दिखता। यदि ऐसा पूछा जाय कि-जब आत्मा में कोई अन्य बोधकर्ता सक्रिय नहीं दिखता है तो 'आत्मा प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमेय है' इस पक्ष में भी आत्मा की प्रतीति अन्य किसी सक्रिय कर्ता या करण के अभाव में कैसे होगी ?-उत्तर यह है कि आत्मा की अनुमानात्मक प्रतीति में चैतन्यादि लिग ही सक्रिय करण बन कर आत्मा की अनुमिति करवाता है, एक ही आत्मा में करण की अपेक्षा और कर्तृ आदि की अपेक्षा अवस्था भेद होने में कोई दोष नहीं है। [आत्मप्रत्यक्ष के लिये अलग प्रमाण की आपत्ति ] दूसरी बात, आपने जो कहा-आत्मा प्रमाण [ ज्ञान ] का विषय नहीं है, फिर भी अपरोक्ष है-इसका क्या अर्थ ? यदि ऐसा कहें कि 'आत्मा का जो ज्ञातृत्व स्व रूप है उस स्व रूप से उसका अवभास होना'-तो हम पूछते हैं कि क्या घटादि का जो अवभास होता है वह पर रूप से होता है ? नहीं, सभी वस्तु का अपने अपने स्व रूप से ही अवभास होता है, अत: जिस पदार्थ का जैसा स्व रूप है, वह प्रमाण के विषयरूप में ही अवभासित होता है, यदि आत्मा का स्व रूप से अवभास मान तो वह भी प्रमाण के विषयरूप में ही होना चाहिये, अत: प्रमाता-बोधकर्ता को ज्ञान का अविषय दिखाना ठीक नहीं है । जैसे: ज्ञातृत्व कहिये या प्रमातृत्व, अथवा आत्मस्वरूपता कहिये सब एक ही है, तथा घटादि में प्रमेयत्व ज्ञेयत्व या घटादिरूपत्व कहिये, वह सब एक ही है, तो जैसे घटादि का स्वरूप से अवभास होने पर ही प्रत्यक्षता होती है उसी प्रकार आत्मा के भी स्वरूपावभास से ही उसमें प्रत्यक्षता आयेगी, इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि वह ज्ञान का अविषय है। आत्मा को प्रमाणविषय अवश्य मानना चाहिये. वरना आत्मा का स्वसंवेदन-रूप जो प्रत्यक्ष है वह प्रत्यक्ष होने पर भी उसमें प्रसिद्ध प्रत्यक्ष का लक्षण न घटने से, प्रसिद्ध प्रत्यक्षलक्षण से भिन्न जाति का लक्षण आप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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