SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ न च दीपादि दृष्टान्तः, तत्र हि सजातीयालोकानपेक्षत्वेन स्वप्रतीतौ स्वप्रकाशकत्वं व्यवस्थापितं कश्चित् न त्विन्द्रियाऽग्राह्यत्वम् , तदग्राह्यत्वे 'स्वप्रकाशाः प्रदीपादयः' इति चक्षुष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीतिप्रसंगः, तस्मान्न स्वप्रकाशाः प्रदीपादयः। यत्तु पालोकान्तरनिरपेक्षत्वं तत् कस्यचिद्विषयस्य काचित् सामग्री प्रकाशिकेति नैकत्र दृष्टत्वेनाऽन्यत्रापि प्रसक्तिश्चोधते । अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽप्ययुक्तः, अदर्शनादेव । नहि कश्चित् पदार्थः कर्तृ रूपः करणरूपो वा स्वात्मनि कर्मणीव सव्यापारो दृष्टः । कथं तमु नुमेयत्वेऽप्यात्मप्रतीतिः प्रमात्रन्तराभावात् ? एकस्यैव लिंगादिकरणमपेक्ष्य (1) वस्थाभेदे सति अदोषः । [ आत्मा में अपरोक्षप्रतिभासविषयता की मीमांसा ] यदि यह कहा जाय-"घटादि में जो प्रत्यक्षता है और आत्मा में जो प्रत्यक्षता है दोनों तुल्य नहीं है, घटादि में प्रत्क्षत्व की व्यवस्था इन्द्रियजन्यज्ञान विषयता के आधार पर की जाती है। जिन प्रमाणों से केवल बाह्यार्थ का ही बोध होता है ऐसे किसी भी प्रमाण का विषय आत्मा नहीं है । तो फिर वह प्रत्यक्ष कैसे ? ऐसा प्रश्न होगा, उसका उत्तर यह है कि आत्मा बाह्यविषयों के ग्राहक ज्ञान का विषय होने से प्रत्यक्ष नहीं है किंतु उसका अपरोक्षरूप से प्रतिभास होता है, अत एव उसको प्रत्यक्ष कहा जाता है । आत्मा का यह अपरोक्षरूप से प्रकाशन शुद्ध अहमाकार प्रतीति में भी होता है और 'घट को मैं जानता हूँ' इस प्रकार घटादि की प्रतीति में अन्तर्गत अहमाकार अपरोक्षप्रतीति में भी होता है, यह आत्मप्रकाशन अपरसाधन यानी इन्द्रियादि साधन के विना ही होने वाला है, यह बात पहले भी हो गयी है।"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, आपने जो कहा-आत्मप्रकाशन अपरसाधन है, उसके ऊपर दो प्रश्न हैं, (१) चित्स्वरूप आत्मा की सत्ता यही अपरसाधन यानी इन्द्रियादि साधन के विना होने वाला आत्मप्रकाशन है ? या (२) अन्य की नहीं किन्तु अपनी ही प्रतीति में व्यापार का होना, इसे आप अपरसाधन कहते हैं ? प्रथम प्रश्न के उत्तर में आप ऐसा कहें कि चित्स्वरूप यानी ज्ञानात्मक प्रकाशमय आत्मा की सत्ता यही आत्म प्रकाशन है, तो ऐसे पदार्थ की संभावना में दूसरा कौन सा दृष्टान्त है ? 'जो स्वयं अपरोक्ष है उसमें दृष्टान्त को हूँढने की क्या जरूर' ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि लोक में ऐसा देखा जाता है कि जब वसा कोई पदार्थ विवादास्पद बन जाय तब प्रसिद्ध दृष्टान्त को ढूढना पड़ता है । प्रदीपादि को दृष्टान्त नहीं बना सकते, क्योंकि जो विद्वान उसे स्वप्रकाश मानते हैं उन्होंने, दीपक को देखने के लिये नये किसी समानजातीय दीपकादि के प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती- इसी के आधार पर दीपक को स्वप्रकाश कहा है, इन्द्रियजन्यज्ञान का अविषय होने से दीपक को कहीं भी स्वप्रकाश नहीं माना है, क्योंकि दीपक इन्द्रिजन्यज्ञान का विषय ही है। यदि प्रदीपादि को इन्द्रियअग्राह्य बताकर स्वप्रकाश मानेगे तब तो सनेत्र पूरुषवत् अन्ध पूरुष के लिये भी प्रदीपादि स्वप्रकाश होने से अन्धे को भी दीपकादि की प्रतीति हो जाने का अनिष्ट प्रसंग खडा होगा। अतः प्रदीपादि को स्वप्रकाश नहीं कह सकते। यद्यपि 'अन्य प्रकाश की अनावश्यकता'रूप स्वप्रकाशत्व हो सकता है, किन्तु यही तो पदार्थों की विचित्रता है की भिन्न भिन्न किसी पदार्थों की प्रकाश सामग्री कुछ भिन्न * 'वस्थाभेदेन भेदे सति अदोषः' इति पूर्वमुद्रिते पाठः, लिंबडीज्ञानकोशीय प्रत्य रेणात्र संशोधितः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy