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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: ३१५ अथवा मातापितृपूर्वजन्मकसामग्रीजन्यमेतत् कार्यम् एत[ ? अतो]न दोषोऽव्यतिरिक्तपक्षेऽपि विज्ञान-शरीरयोः । पूर्वमप्युक्तम्-'विलक्षणादप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां माता-पितशरीराद्विज्ञानमुपजायताम् , न हि कारणाकारमेव सकलं कार्यम्' इति-तदप्यसन , यतो न हि कारणविलक्षणं कार्य न भवतीत्युच्यते, अपि तु तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तत्कार्यत्वम् । तथाहि-यद् यद्विकारान्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् तत्कार्यमिति व्यवस्थाप्यते, यथा अगुरुक रोर्णादिदायदाहकपावकगतसुरभिगन्धाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी धूमः तत्कार्यतया व्यवस्थितः, एकसंतत्यनुपतितशास्त्रसंस्कारादिसंस्कृतप्राक्तनविज्ञानधर्मान्वयव्यतिरेकानुविधायि च प्रज्ञा-मेधाधुत्तर विज्ञानमिति कथं न तत्कार्यमभ्युपगम्यते ? तदनभ्युपगमे धूमादेरपि प्रसिद्धवह्नयादिकार्यस्य तत्कार्यत्वाऽप्रसिद्धिरिति पुनरपि सकलव्यवहारोच्छेदः । हमारे मत में, विज्ञान और शरीर का भेद सिद्ध ही है क्योंकि विज्ञान शरीरधर्म से विरुद्ध ऐसे हर्ष-विषादादि अनेक धर्म से आश्लिष्ट है तथा विज्ञान का अनुभव अन्तःकरण से [ मन से ] अन्तमुखपदार्थ के रूप में होता है, दूसरी ओर शरीर विज्ञानधर्म से विरुद्ध ऐसे सहभावि और क्रमभावि अनेक धर्मों से अध्यासित [=आश्लिष्ट ] है, सहभावि यानी एक साथ रहने वाले धर्म रूप-रस स्पर्शादि है और शैशव, कुमार, यौवन और वृद्धत्व आदि अवस्था ये क्रमभावि धर्म हैं। तदुपरांत शरीर का अनुभव अन्तर्मुखरूप से नहीं किंतु बाह्य न्द्रियजन्य ज्ञान से बहिर्मुखरूप से होता है। जल और अग्नि इन दोनों में जब विरुद्धधर्मध्यिास के कारण और हेतुभेद के कारण भेद माना जाता है तो शरीर और विज्ञान का भी विरुद्धधर्माध्यास एवं हेतुभेद उपरोक्त रीति से मौजूद है तो उन दोनों का भेद क्यों न माना जाय ? कारणभेदादि होने पर भी यदि वस्तुभेद न मानेंगे तब तो पूर्वोक्तरीति से ब्रह्माद्वैत वाद की आपत्ति प्रसक्त होने से पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय की वार्ता भी नामशेष हो जाने के कारण सकल व्यवहारोच्छेद का प्रसंग तदवस्थ ही रहा । [विज्ञान विज्ञान का ही कार्य है ] विज्ञान और शरीर के भेदपक्ष का समर्थन करने के बाद अब व्याख्याकार अभेद में भी कोई दोष नहीं है यह अथवा शब्द से दिखाते हैं कि यह जन्मरूप कार्य माता-पिता एवं जन्मान्तररूप जो एक सामग्री, उससे जन्य है । यहाँ अगर विज्ञान और शरीर का अभेदपक्ष माना जाय तो भी दोष नहीं है क्योंकि सामग्री में पूर्वजन्म के अन्तर्भाव से अनायास जामान्तर सिद्ध हो जाता है । __पहले जो यह कहा था कि-"विज्ञान का अवय और व्यतिरेक माता-पिता के देह के साथ दृष्ट है अत: माता-पिता का देह पुत्र शरीरगत विज्ञान से विलक्षणविज्ञान वाला होने पर भी माता-पितृ देह से हो पुत्र विज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिये, यह कोई नियम नहीं है कि कार्य सदा कारणानुरूप ही हो"इत्यादि, [पृ०२८९] वह ठीक नहीं है । हम ऐसा नहीं कहते कि कार्य कभी कारण से विलक्षण नहीं होता, कितु हम तो यह कहते हैं कि जो तदन्वयव्य तिरेक का अनुसरण करे वह तत्कार्य है । जैसे देखिये-जिस वस्तु के विकार के अन्वय-व्यतिरेक का जो अनुसरण करे वह उस वस्तु का कार्य है ऐसा स्थापित किया गया है, जैसे: अगुरुद्रव्य, कपूर और ऊर्णादि द्रव्य इन दाहयोग्य द्रव्य को दग्ध कर देने वाले अग्नि में जिस प्रकार की सुगंध होती है, उसी प्रकार की सुगंध के अन्वय-व्यतिरेक को अनुसरने वाला तज्जन्य धूम भी होता है, अत: धूम को ततद अग्नि का कार्य माना जाता है। प्रस्तुत में देखिये कि प्रज्ञा-मेधा. दिरूप जो उत्तरकालीन विज्ञान है वह भी एकसंतानानुगत, शास्त्रीयसंस्कारों से परिष्कृत पूर्वकालीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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