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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते । तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रितम् ।' [ ] प्रतिपादितश्च प्रमाणतः प्रतिनियतः कार्यकारणभावः सर्वज्ञसाधने 'कुस म यविसासणं' इति पदव्याख्या कुर्वद्भिर्न पुनरिहोच्यते।
___ योऽपि शालूकष्टान्तेन व्यभिचार: 'यथा गोमयादपि शालूकः, कश्चित् समानजातीयावपि शालूकादेव, तथा केचित प्रज्ञामेधादयस्तदभ्यासात् , केचित तु रसायनोपयोगात् , अपरे मातापितृशुक्र-शोणितविशेषादेव' इति; सोपि न सम्यक् , तत्रापि समानजातीयपूर्वाभ्याससम्भवाद् अन्यथा समानेऽपि रसायनाधुपयोगे यमलकयोः कस्यचित् क्वापि प्रज्ञा-मेधादिकमिति प्रतिनियमो न स्यात, रसायनाधुपयोगस्य साधारणत्वादिति ।
____ न च प्रज्ञादीनां जन्मादौ रसायनाभ्यासे च विशेषः, शालक-गोमयजन्यस्य तु शालकादेस्त. दन्यस्माद्विशेषो दृश्यते । क्वचिज्जातिस्मरणं च दर्शनमिति न युक्ता दृष्टकारणादेव मातापितृशरीरात प्रज्ञा-मेधादिकार्यविशेषोत्पत्तिः । न च गोमय-शालकायाभिचारविषयत्वेन प्रतिपादितस्यात्यन्तवलक्षण्यम् . रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्पुद्गलपरिणामत्वेन द्वयोरप्य लक्षण्यात् । विज्ञान शरीरयोश्चान्तबेहिमुखाकारविज्ञानग्राह्यतया स्वपरसंवेद्यतया स्वसंवेदन-बाह्यकरणादिजन्यप्रत्ययानुभूयमानतया च परस्पराननुयाय्यनेकविरुद्धधर्माध्यासतोऽत्यन्तवैलक्षण्यस्य प्रतिपादितत्वाद नोपादानोपादेयभावो युक्तः।
विज्ञान के धर्मों के अन्वय व्यतिरेक का अनुसरण करता ही है तो विज्ञान को विज्ञान का कार्य क्यों न माना जाय ? फिर भी यदि नहीं मानना है तो धूम भी जो कि अग्नि के कार्यरूप में सुप्रसिद्ध है, उस को ‘अग्नि का कार्य' ऐसी प्रसिद्धि नहीं मिलेगी। फलतः एकबार फिर से कार्य कारण के व्यवहारों का उच्छेद प्रसक्त होगा । जैसे कि कहा है
[शालूक के दृष्टान्त से व्यभिचारापादन असम्यक । "इसलिये जिसके ही संस्कार का चित्त नियमतः अनुसरण करता है वह उसका नान्तरीयक [पूर्व] चित्त ही है अतः चित्त [ पूर्वापर भाव से ] चित्त का ही समाश्रित है।'
उपरांत, प्रतिनियत ही कारण-कार्यभाव का प्रमाण से प्रतिपादन, हमने 'कुसमय विसासण' इस मूलकारिका के पद की व्याख्या करते समय सर्वज्ञसिद्धि के प्रस्ताव में कर दिया है, अत: उसका पुनरावर्तन नहीं किया जाता।
तथा नास्तिक ने जो पहले शालूक [ -मेंढक ] के दृष्टान्त से व्यभिचारापादन करते हुए कहा था [ पृ० २८९ ]- 'कोई मेंढक गोबर से उत्पन्न होता है और कोई समानजातिवाले मेंढक से ही, इस प्रकार कोई प्रज्ञा-मेधादि उनके अभ्यास से निष्पन्न होते हैं तो कोई ब्राझी आदि रसायनों के उपयोग से, तथा कोई प्रज्ञामेधादि माता पिता को शुक्र-शोणित धातु से ही उत्पन्न होने का माना जा सकता है'-इत्यादि, वह सर्वथा असंगत है, क्योंकि रसायनोपयोगादि से प्रज्ञा-मेधादि की उत्पत्ति को जहाँ आप दिखा रहे हैं वहाँ भी पूर्वकालीन अभ्यास का पूरा सम्भव है, अत: व्यभिचार की शक्यता नहीं है। यदि कहें कि वहाँ पूर्वाभ्यास में क्या प्रमाण ? तो उत्तर यह है कि पूर्वाभ्यास को नहीं मानेंगे तो दो सहोदर भाई रसायनादि का एक-सा उपयोग करते हैं फिर भी किसी एक को ही किसी विषय में प्रज्ञा-मेधादि उत्पन्न होने का विशिष्ट नियम दिखाई देता है वह कैसे ? रसायनादि का उपयोग तो दोनों के प्रति साधारण तुल्य है, यदि पूर्वाभ्यास से वहाँ प्रज्ञादि भेद नहीं मानेंगे तो कैसे संगति होगी?
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