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________________ ३१४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ न च 'प्रज्ञामेधादयः शरीरस्वभावान्तर्गताः' इत्यादि बोद्य युक्तम् , तदन्तर्गतत्वेऽपि परिहारसम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां तेषां मातापित्रोः पितृशरीरजन्यत्वस्य पितृशरीरं तहि हेतुभेदान मेदो मातापितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम। अयमपरो बृहस्पतिमतानुसारिण एव दोषोऽस्तु स्यः कार्यभेदेऽपि कारणभेदं नेच्छति । अस्माकं तु हर्षविषादाद्यनेकविरुद्धधर्माकान्तस्य विज्ञानस्यान्तर्मुखतया वेद्यस्य रूपरसगन्धस्पर्शादियुगपद्भावि-बालकुमारयौवनवृद्धावस्थाद्यनेकक्रममाविविरुद्धधर्माध्यासिततच्छरीरादेर्वाह्यन्द्रियप्रभवविज्ञानसमधिगम्याद भेदः सिद्ध एव विरुद्धधर्माध्यासःकारणभेवश्च पदार्थानां भेवकः स च जलानलपोरिव शरीरविज्ञानयोविद्यत एवेति कथं न तयोर्भेदः ? तदादप्यभेदे ब्रह्माद्वैतवादापत्तेस्त. दवस्थ एव पृथिव्यादितत्त्वतुष्टयाभावापत्या व्यवहारोच्छेदः। है, अतः सर्व-देशकाल व्यापक रूप से प्रतिबन्ध के ग्रहण का सामर्थ्य उसमें नहीं है-यह तो कुछ नहीं है, तुच्छ है । यदि निकटवर्ती का ही ग्रहण मानेंगे तो कोई ऐसा कहेगा कि प्रत्यक्ष निकटवर्ती को नहीं किन्तु अतिनिकटवर्ती वस्तु को ही विषय करता है क्योंकि निकटवर्ती वस्तु भी जब स्पष्ट नहीं दिखती तब हाथ में लेकर नेत्र के समीप रखनी पडती है, तभी स्पष्टदर्शन होता है । यदि ऐसा मान लिया जायेगा तो प्रत्यक्ष का अति निकट केवल अपना स्वरूप ही शेष रहेगा, और तो सभी वस्तु उससे कुछ न कुछ दूर ही है, अतः केवल अपने स्वरूपमात्र का ग्राहक प्रत्यक्ष सिद्ध होगा तो फिर से एक बार सकलव्यवहार भंजक वह बौद्धादि का इष्ट मत 'ज्ञान का अपना संवेदन मात्र' सिद्ध होगा। इस आपत्ति से बचने के लिये यही मानना उचित है कि लोक व्यवहारों के प्रवर्तन में कुशल ऐसे सविकल्प प्रत्यक्ष के बल से अथवा तर्क-नामक प्रमाण से नियतसाहचर्यलक्षण वाले हेतु की सर्वदेशकालव्यापकरूप से व्याप्ति का ग्रहण होता है, जिससे अनुमान की प्रवृत्ति होती है। ऐसा जब मानेंगे तो परलोक सिद्धि में भी कोई व्याघात नहीं है, माता-पिता से अतिरिक्त जन्मान्तररूप सामग्री भी इस जन्म के हेतुरूप में सिद्ध होती है। इसलिये नास्तिक ने यह जो कहा था कि-कुछ प्रज्ञादि विशेष अभ्यासजनित होते हैं और कुछ माता-पितृदेह पूर्वक होते हैं यह निरस्त हो जाता है क्योंकि जन्मान्तर सिद्ध हो जाने पर सभी प्रज्ञादिविशेष की अभ्यासपूर्वकता में कोई संदेह नहीं रहता जिससे माता-पितृदेहपूर्वकता की कल्पना करनी पड़े। [विज्ञानधर्म और शरीरधर्मों में भेदसिद्धि ] ___ 'प्रज्ञा और मेधादि धर्म शरीरस्वभाव के हो अन्तर्गत हैं' यह आपादन भी असत् है, क्योंकि प्रज्ञा-मेधादि को शरीरस्वभावान्तर्भूत मानने पर भी, जन्मान्तरजन्यत्वविरोध का परिहार सम्भवित है। अन्वयव्यतिरेक से यदि प्रज्ञा-मेधादि में मातापितृशरीरजन्यत्व सिद्ध करेंगे तो अन्वय-व्यतिरेक से ही पुत्र-पुत्री के प्रज्ञा-मेधादि में अभ्यास जन्यत्व भी सिद्ध होने से मातापितृशरीर से जन्य पुत्र-पुत्री आदि के प्रज्ञा-मेघादि के प्रति हेतुभेद भी मानना होगा * । अर्थात् अभ्यास को भी हेतु मानना पड़ेगा । बृहस्पति मत के अनुगामीयों पर यह एक अधिक आपत्ति खडी हुई क्योंकि वे तो कार्य भिन्नजाति का होने पर भी कारणभेद नहीं मानते है । *यहाँ यथामुद्रित पाठ की संगति करना दुष्कर है । लिंबडी भंडार की प्रति में 'तहि हेतुभेदो माता-पितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम' इस प्रकार का उपलब्ध पाठ कुछ संगत प्रतीत हुआ है, उसके ऊपर से हमने "तेषां मातापितृशरीरजन्यत्वे तहि हेतुभेदो माता-पितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम" ऐसे पाठ की सम्भावना कर के हिन्दी विवरण किया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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