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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः ३१३ यदप्युक्तम्-'माता-पितृसामग्रीमात्रेणेहजन्मसम्भवान्न तज्जन्मव्यतिरिक्तभूतपरलोक.साधनं युक्तम्' इति-तदपि प्रतिविहितमेव, समनन्तरप्रत्ययमात्रेण प्रत्ययप्रत्यक्षस्य भावात स्वप्नादिप्रत्ययवन्न प्रत्यक्षाद बाह्यार्थसिद्धिरपीति बौद्धाभिमतपक्षसिद्धिप्रसंगाऽनस्तत्वात । यदपि प्रत्यपादिन संनिहितमात्रविषयस्वाद प्रत्यक्षस्य देश-कालव्याप्त्या प्रतिबन्धग्रहणसामर्थ्यम्' इति, तदपि न किंचित् । एवं सति अतिसंनिहितविषयत्वेन प्रत्यक्षस्य स्वरूपमात्र एव प्रवृत्तिप्रसंग इति तदेव बौद्धाद्यभिमतं स्वसंवेदनमात्रं सर्वव्यवहारोच्छेदकारि प्रसक्तमिति प्रतिपादितत्वात् । तस्माल्लोकव्यवहार प्रवर्तनक्षमसविकल्पप्रत्यक्षबलाद् ऊहाख्यप्रमाणाद् वा देश-कालव्याप्त्या यथोक्तलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धग्रहणे प्रवृत्तिरनुमानस्येति न व्याहतिः प्रकृतस्येत्येतदपि निरस्तम् 'केचित प्रज्ञादयः........' [पृ० २८९-५०६ ] इत्यादि । युक्तिसमूह का निरूपण किया है वह पूरा ध्वस्त हो जाता है, यह स्वयं समझा जा सकता है, ग्रन्थ गौरव के भय से उसके एक एक युक्तिवचन को लेकर उसके दोष दिखाने का प्रयत्न नहीं करते हैं। [ अनुमान से परलोकसिद्धि सुशक्य ] नास्तिक ने जो यह कहा था-इस जन्म की अन्यथा अनुपपत्ति से परलोकसद्भाव की सिद्धि यह अर्थापत्तिरूप ही है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण की [ और अनुमान की भी ] परलोक में प्रवृत्ति शक्य नहीं है-इत्यादि, वह भी संगत नहीं, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमानप्रमाण से अतिरिक्त नहीं है इस पूर्वोक्त संदर्भ के अनुसार यह कहा हो है कि जो जो नियमभित यानी अविनाभावज्ञानजनित बुद्धि का उदय होता है वह अनुमानस्वरूप ही है । यदि यह कहा जाय कि-परलोकात्मक वस्तु के साथ किसी हेतु में अविनाभावसंबन्ध का ग्रहण शक्य नहीं है अत: अनुमान यहाँ प्रवृत्त नहीं हो सकता-तो इसके सामने यह भी कह सकते हैं कि ज्ञान में बाह्यार्थ के अविनाभावसम्बन्ध का ग्रहण शक्य न होने से बाह्यार्थ असिद्ध है, तो इस प्रकार ज्ञानाद्वैतवाद को और आगे चलकर शून्यवाद की आपत्ति आयेगी । अतः अविनाभावसम्बन्ध के ग्रहण की अशक्यता का दोष कौन किस के ऊपर लगा रहा है यह सोचिये ! यदि शून्यवाद तक की आपत्ति से बचना हो तो यह स्वीकारना होगा कि उचित व्यवहार प्रत्यक्ष से अथवा तर्क से सम्बन्ध का ग्रह होता है । जब यह मानेंगे तो अनुमान से परलोक की सिद्धि क्यों न हो सकेगी? [ केवल माता-पिता से इस जन्म की उत्पत्ति अयुक्त ] नास्तिक ने जो यह कहा था कि [ पृ० २८८-४ ] "माता पिता रूप सामग्री से ही इस जन्म की उत्पत्ति शक्य होने से उसके हेतुरूप में इस जन्म से भिन्न पूर्वजन्मरूप परलोक को सिद्ध कर दिखाना युक्त नहीं है"- इस का भी अब प्रतिकार हो जाता है क्योंकि बौद्ध का जो वांछित है-ज्ञान का प्रत्यक्ष, केवल भूतपूर्व जो समनन्तर प्रत्यय है उसीसे सम्पन्न हो जाने पर प्रत्यक्ष के आलम्बन से बाह्यार्थसिद्धि दुष्कर है जैसे स्वप्न के प्रत्यक्ष से किसी भी बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं होती है-बौद्ध के इस पक्ष की सिद्धि का अस्त नास्तिक से नहीं होगा । तात्पर्य, जन्मान्तर के विना केवल माता पिता से इस जन्म को उत्पत्ति मान ली जाय तो बाह्यार्थ के विना भी केवल समनन्तरप्रत्यय से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति मान लेने का अ [सर्वदेश-काल के अन्तर्भाव से व्याप्तिग्रह की शक्यता ] यह जो कहा था कि -[ पृ० २८९ ] प्रत्यक्ष केवल निकटवर्ती वस्तु को विषय कर सकता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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