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________________ ३१२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अतो लोकप्रसिद्धतान्त्रिकलक्षणलक्षितानुमानयोभैदाभावादतीन्द्रियपरलोकाद्यर्थसाधकत्वमपि तस्यैवेति तत्प्रामाण्यानभ्युपगमे इहलोकस्यापि अभ्युपगमाभावप्रसंगः । न च 'किमत्र निर्विकल्पकं, मानसं. योगिप्रत्यक्षमूहो वा प्रतिबन्धनिश्चायकं, प्रतिबन्धोऽपि नियतसाहचर्यलक्षणः कार्यकारणभावाविर्वा' इति चिन्तात्रोपयोगिनी, धमादग्निप्रतिपत्तिवत प्रज्ञा-मेधादिविज्ञानकार्यविशेषानिजजन्मान्तरविज्ञानस्वभावपरलोकप्रतिपत्तिसिद्धेः । अतोऽनुमानाऽप्रामाण्यप्रतिपादनाय पूर्वक्षवादिना यद् युक्तिजालमुपन्यस्तं तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् , प्रतिपदमुच्चार्य न दूष्यते ग्रन्थगौरवभयात् । यदप्युक्तम् 'परलोके प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेरापत्तिरेवेयम् , इहजन्मान्यथाऽनुपपत्त्या परलोकसद्भावः' इति, तदपि न सम्यक् , पूर्वानुसारेण सर्वस्य नियतप्रत्ययस्य प्रवृत्तेरनुमानत्वप्रतिपादनात । 'प्रविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वान्नात्रानुमानम्' इति चेत् ? नन्वेवं तदेवाऽद्वैतं शून्यत्वं वा कस्य केन दोषाभिधानम् । तस्मात संव्यवहारकारिणा प्रत्यक्षेण ऊहेन वा प्रतिबन्धसिद्धिरिति कथं नानुमानात परलोकसिद्धिः? वस्तु से अन्य वस्तु के बोध का होना माना जायेगा तो सब वस्तु से सभी का बोध होता रहेगा- यह अतिप्रसंग होगा। [ अनुमान से निर्विघ्न परलोक सिद्धि-उपसंहार ] जैसे प्रतिबन्ध को मानना जरूरी है वैसे उसके साधक प्रमाण की सत्ता भी अवश्य माननो पडेगी । वरना, प्रतिबन्धग्रहण किये विना ही किसी भी एक वस्तु से किसी अन्य वस्तु के बोध को मान लेने पर जो सभी से सर्व के बोध का प्रसंग दिया गया था वह तदवस्थ रहेगा क्योंकि सभी वस्तुएं प्रतिबन्ध के ग्रहण से शून्य ही हैं। पक्षधर्मता का स्वरूप यह है कि जिस का प्रतिबन्ध ज्ञात हो ऐसा अर्थ जिस देश में उपलब्ध हो कर साध्य की सिद्धि करे उस देश को वहाँ पक्ष कहा जायेगा और उस अर्थ को उसका धर्म कहा जायेगा-इसी का नाम पक्षधर्मता है, [ पक्ष में धर्म हेतु का रहना ]। इस पक्षधर्मता का भी ग्राहक प्रमाण प्रत्यक्ष या अनमान-दोनों में से कोई भी हो सकता है। जैसा कि धर्मकोत्ति ने कहा है-पक्षधर्मता का निश्चय प्रत्यक्ष से अथवा अनुमान से होता है। उपरोक्त समस्त चर्चा का सार यही है कि-लोकप्रसिद्ध अनुमान और शास्त्रकारों के बनाये हुए लक्षण वाला अनुमान, दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। अत: अतीन्द्रिय परलोकादिरूप अर्थ का साधक भी अनुमान ही है यह निर्विवाद सिद्ध होता है। यदि परलोक सिद्धि में अनुमान को प्रमाण नहीं मानेंगे तो इहलोक के स्वीकार का भी अभाव प्रसक्त होगा। ___ यदि यहाँ ऐसी चि.ता की जाय कि-"प्रतिबन्ध का निश्चायक क्या निर्विकल्प प्रत्यक्ष है, या मानस प्रत्यक्ष है, या योगीप्रत्यक्ष है अथवा तर्क ही प्रतिबन्ध का निश्चायक है ? प्रतिबन्ध भी नियत साहचर्यरूप माना जाय या कार्यकारणभावादिरूप? क्योंकि आपने दो मत बताये कौनसा उपादेय है यह नहीं कहा है।"-तो इसके ऊपर व्याख्याकार का कहना है कि ऐसी चिन्ता प्रकृत में उपयोगी नहीं, निरर्थक है। प्रस्तुत में तो इतना ही दिखाना है कि जैसे धूम से अग्नि का उपलम्भ होता है वैसे ही, प्रज्ञा-मेधादि आकार विशेष से अपने ही जन्मान्तरीयविज्ञानस्वरूप परलोक के उपलम्भ की सिद्धि सुसंभवित है। इसलिये, अनुमान को अप्रमाणसिद्ध करने हेतु पूर्वपक्षी वादी ने जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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