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________________ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ , शालूकमन्तरेणेति एतदपि प्रष्टव्यम् । तस्मात् कार्य-कारणभावमात्रमेवैतत् तत्र च नियमाभावादविज्ञानादपि माता- पितृशरीराद् विज्ञानमुपजायताम् । प्रथवा यथा विकल्पाद् व्यवहितादपि विकल्प उपजायते तथा व्यवहितादपि माता- पितृशरीरत ऐवेति न भेदं पश्यामः । यथा चैकमातापितृशरीरादने कापत्योत्पत्तिस्तथैकस्मादेव ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिरिति न जात्यन्तरपरिग्रहः कस्यचिदिति न परलोकसिद्धि: । न हि मातापितृसम्बन्धमात्रमेव परलोकः, तथेष्टावभ्युपगमविरोधात् । २९० श्रथानाद्यनन्त आत्मा अस्ति, तमाश्रित्य परलोकः साध्यते । नह्ये कानुभवितृव्यतिरेकेणाSनुसंधानं संभवति, भिन्नानुभवितर्यनुसंधानादृष्टेः । तदयुक्तम्- "परलोकिनोऽभावात् परलोकाभाव:" [ बा० सू० १७ ] इति वचनात् । नानायनन्त श्रात्मा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धः । अनुमानेन चेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः- सिद्धे आत्मन्येकरूपेणानुसंधान विकल्पस्याऽविनाभूतत्वे श्रात्मसिद्धिः तत्सिद्धेश्वानुसंधानस्य तदविनाभतत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयसद्भावान्नैकस्यापि सिद्धिः । न चाऽसिद्धमसिद्धेन साध्यते । [ विलक्षण शरीर से जन्मान्तर की सिद्धि दुःशक्य ] _परलोकवादी : - पूर्वजन्म में संगृहीत पुण्यकर्म के विना केवल माता-पिता के देह से ही पुत्रदेह उत्पन्न होता है तो वह माता-पिता के देह से भिन्न जाति का क्यों होता है ? नास्तिक:- अरे ! इस स्थल में हो तो 'कारण से अनुरूप कार्य की उत्पत्ति' के नियम में व्यभिचार देखा जाता है, अर्थात् वह नियम जुटा है। सभी काल में कारण के जैसा ही कार्य उत्पन्न होने का नियम नहीं है, अत भिन्नजातीय भा माता पिता के देह से प्रज्ञा- मेधादिकृत विलक्षणता वाला, उनके पुत्र का देह उत्पन्न हो सकता है, कभी कभी माता-पिता देह के तुल्य आकृतिवाला भी हो जाय तो इसमें ऐसा क्या विरोध है ? देखते तो हैं कि कोई मेंढक अपनी जातिवाले मेंढक से उत्पन्न होता है तो कोई गोमय आदि से भी होता है । तथा, कोई विकल्प उपदेश से उत्पन्न होता है तो कोई विकल्प तत्तद् आकारवाले पदार्थ के स्वयं दर्शन से भी होता है । यदि कोई ऐसा पूछे कि पूर्व पूर्व विकल्प की वासना के विना तदाकार विकल्प केवल दर्शनमात्र से किस तरह उत्पन्न होगा - तो यह भी पूछने का वह साहस करें कि मेंढक के विना केवल गोमय से मेंढक - उत्पत्ति कैसे होती है ? । अत. सच बात तो यह है कि मेंढक मेंढक के बीच केवल साधारण कार्य कारणभाव ही है, किन्तु मेंढक से ही मेंढक- उत्पत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं है अत एव विज्ञानभिन्न माता-पिता शरीर से भी विज्ञान उत्पन्न हो, कोई दोष नहीं है । अथवा उस प्रश्न के उत्तर में यह भी कह सकते हैं कि जैसे दूरवर्ती विकल्प से उत्तरकाल में विकल्प उत्पन्न होता है, वैसे ही, वर्तमान बालक का जैसा रूप-रंग आकार है वैसे रूपादि वाले उस बालक के पूर्वजों में जो माता-पिता हो गये, उन दूरवर्ती माता पिता से ही वर्त्तमान बालक देह का जन्म हुआ है, अतः माता-पिता का देह और पुत्र का देह दोनों में भेद यानी वैलक्षण्य का कोई प्रश्न नहीं रहता है । अथवा यह भी कह सकते हैं कि जैसे एक ही माता-पिता के देह से अनेक पुत्रपुत्री की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार एक ही ब्रह्म तत्त्व से समग्र प्रजा की उत्पत्ति होती है, जब उसका नाश होता है तब उसी ब्रह्म तत्त्व में उसका विलय हो जाता है-ऐसा भी सम्भव है तो अब किसी के भी जात्यन्तर यानी जन्मान्तर के परिग्रह को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org !
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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