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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: २८६ अथ प्रज्ञा-मेधादयो जन्मादावभ्यासपूर्वका दृष्टाः कथमतत्पूर्वका भवेयुः, न वह्निपूर्वको धूमस्तत्पूर्वकतामन्तरेण कदाचिदपि भवन्नुपलब्धः । तदप्यसत्-अविनाभावसम्बन्धस्य देश-कालव्याप्तिलक्षणस्य प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः । संनिहितमात्रप्रतिपत्तिनिमित्तं हि प्रत्यक्षमुपलभ्यते, 'न हि सकलदेशकालयोविना वह्निमसम्भव एव धूमस्य' इति प्रत्यक्षतः प्रतीतियुक्ता, अतो न धूमोऽपि वह्निपूर्वकः सर्वत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां सिद्धः, इति कुतस्तेन दृष्टान्तेन जन्मान्तरस्वरूपपरलोकसाधनम् ? तस्मात् केचित् प्रज्ञा-मेधादयस्तथाभूताभ्यासपूर्वकाः, केचिद् माता-पितृशरीरपूर्वका इति । न च प्रज्ञादयः शरीरतो व्यतिरिच्यमानस्वभावाः संवेदनविषयतामुपयान्ति, शरीरं च तदन्वयव्यतिरेकानुवृत्तिमदेव दृष्टमिति कथमन्यथा व्यवस्थामहति ? । अथ पूर्वोपात्तादृष्टमन्तरेण कथं मातापितृविलक्षणं शरीरम् ? नन्वतेनैव व्यभिचारो दृश्यते, नहि सर्वदा कारणानुरूपमेव कार्यम् , तेन विलक्षणादपि माता-पितृशरीराद् यदि प्रज्ञा-मेधादिभिविलक्षणं तदपत्यस्य शरीरमुपजायेत, कदाचित् तदाकारानुकारि तत् क एवाऽत्र विरोधः ? यथा कश्चित् शालकादेव शालूकः, कश्चिद् गोमयात् ; तथा कश्चिदुपदेशाद् विकल्पः, कश्चित्तवाकारपदार्थदर्शनात् । अथ दर्शनादपि विकल्पः पूर्वविकल्पवासनामन्तरेण कथं भवेत ? तहि गोमयादपि शालकः कथं पदार्थ के विना उपपन्न न हो सके' । प्रस्तुत में, पूर्व जन्मान्तर के विना वर्तमान जन्म की अनुपपत्ति है यह असिद्ध है, क्योंकि माता-पिता रूप सामग्री से ही वर्तमान जन्म की उपपत्ति हो जाती है, अतः माता-पिता ही वर्तमान जन्म के हेतु बन जाते हैं, शेष जन्मान्त रादि की निरर्थक कल्पना यदि की जाय तो निरर्थक अश्वसींग आदि की भी कल्पना क्यों न की जाय ? [प्रज्ञा-मेधादिगुण की जन्मान्तरपूर्वकता कैसे ? ] यदि यह शंका करें कि-"प्रज्ञा और मेधा इत्यादि गुण हमेशा अभ्यास से ही सम्पन्न होते हुए दिखाई देते हैं, तो जन्म के प्रारम्भ में नवजात शिशु में जो दुग्धपानादि प्रयोजक प्रज्ञा दिखाई देती है वह पूर्वजन्म के अभ्यास के विना कैसे उपपन्न होगी? धूम में अग्निपूर्वकत्व प्रसिद्ध होने से अग्नि से उत्पन्न हुये विना ही धूम कहीं विद्यमान हो ऐसा कहीं देखा नहीं है ।"- यह शंका भी अयुक्त है। कारण, धूम में अग्नि का अविनाभावरूप सम्बन्ध का अर्थ है जिन देश काल में धूम का अस्तित्व हो, उन सभी देश-काल में अग्नि भी होना चाहिये । प्रत्यक्ष से ऐसा अविनाभाव संबंध ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष तो केवल निकटवर्ती पदार्थ ज्ञान में ही निमित्त बनता हुआ दिखाई देता है । प्रत्यक्ष से ऐसा ज्ञान शक्य नहीं है कि - सभी देश-काल में अग्नि के विना धूमोत्पत्ति संभव ही नहीं है'-क्योंकि दूरवर्ती देश-काल का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । जब 'धूम अग्निपूर्वक ही होता है' ऐसा सभी जगह प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ यानी अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध नहीं है तो उसके दृष्टान्त से पूर्व जन्मरूप परलोकसिद्धि को तो बात हो कहाँ ? । इससे यही फलित होता है कि कभी कभी प्रज्ञा-मेघा आदि गुण भूतपूर्व अभ्यास से जन्य होते हैं तो कभी [ जन्म के प्रारम्भ में ] वे केवल माता-पिता के देह से उत्पन्न होते हैं। तदुपरांत, प्रज्ञादि गुण शरीर से अतिरिक्त किसी अन्य तत्त्व के स्वभाव रूप में संवेदन की विषयता से आश्लिष्ट भी नहीं है । दूसरी ओर शरीर के ही अन्वय-व्यतिरेक का अनुवर्तन करने वाले वे देखे गये हैं तो उनको शरीर के गुण न मान कर देह भिन्न तत्व के गुण कैसे प्रस्थापित किये जाय ? ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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