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________________ प्रथम खण्ड-का० १ - परलोकवाद: किं च दर्शना-नुसंधानयोः पूर्वापरभावितोः कार्य-कारणभाव: प्रत्यक्षसिद्धः, तत् कुतोऽनुसंधानस्मरणादात्मसिद्धिः ? अपि च, शरीरान्तर्गतस्य ज्ञानस्याऽमूर्त्तत्वेन कथं जन्मान्तरशरीरसंचारः ? अथाऽन्तराभवशरीरसन्तत्या संचरणमुच्यते, तदपि परलोकान्न विशिष्यते । संचारश्च न दृष्टो जीवत इह जन्मनि, मरणसमये भविष्यतीति दुरधिगममेतत्, न परलोकसिद्धिः । प्रथवा सिद्धेऽपि परलोके प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धाऽसिद्धेव्यर्थमेवानुमानेन परलोकास्तित्वसाधनम् । २९१ जात्यन्तररूपता ही असिद्ध है तो परलोक सिद्धि दूर है । ऐसा तो नहीं है कि माता-पिता का केवल सम्बन्ध ही आपको परलोक रूप में मान्य हो, क्योंकि ऐसा मानने पर तो आप को जन्मान्तर सिद्ध करना है उसमें ही विरोध आयेगा । [ आत्मतत्व के आधार पर परलोकसिद्धि दुष्कर ] यदि यह कहा जाय - " आत्मतत्त्व अनादि-अनन्त है, उसके आधार पर परलोक सिद्ध होता है । समान दो अनुभव में जो यह अनुसंधान होता है कि- 'जो मैंने पहले देखा था उसी मन्दिर को मैं फिर से देख रहा हूँ' - यह अनुसंधान पृथग् पृथग् दो अनुभव करने वाले एक अनुभवकर्त्ता के विना संगत नहीं होगा । भिन्न भिन्न व्यक्ति मंदिर दर्शन का अनुभवकर्ता हो तब उपरोक्त प्रकार का अनुसंधान नहीं होता है । कभी कभी पूर्वजन्म के अनुभव और इस वर्तमान जन्म के अनुभव का भी अनुसंधान होता है और वह एक अनुभवकर्त्ता आत्मा के विना संगत न होने से परलोक की सिद्धि अनायास हो जाती है ।" - तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि यह प्रसिद्ध उक्ति है कि "परलोकिन् आत्मा का अस्तित्व न होने से परलोक भी नहीं है ।" कारण यह है कि जिस आत्मा को आप अनादि-अनंत मानते हैं वह प्रत्यक्षप्रमाण से तो प्रसिद्ध नहीं है । यदि पूर्वोक्त अनुमान से उसको सिद्ध करना चाहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा जैसे - आत्मा को होने वाले एक रूप से अनुभवों का अनुसंधान करने वाला विकल्प आत्मा के अविनाभावी है ऐसा सिद्ध होने पर आत्मा की सिद्धि होगी, और आत्मा सिद्ध होने पर अनुसंधान में तदविनाभाव की सिद्धि होगी । इस अन्योन्याश्रय दोष के कारण एक की भी सिद्धि नहीं होगी क्योंकि किसी एक असिद्ध वस्तु से दूसरे असिद्ध पदार्थ की सिद्धि नहीं की जाती । दूसरी बात यह है कि दर्शन पूर्वकाल में होता है और उसका अनुसंधान उत्तरकाल में होता है, अत: उन दोनों का कारणकार्यभाव प्रत्यक्षसिद्ध है । तब अनुसंधानात्मक स्मरण से पूर्वकालीन दर्शन की सिद्धि सम्भव है किंतु आत्मसिद्धि कैसे होगी ? और भी एक प्रश्न है - ज्ञान तो शरीरान्तर्गत और अमूर्त है तो वह भावि जन्मान्तर के शरीर में कैसे चला जायेगा ? यदि कहें कि - 'इस जन्म और जन्मान्तर के दो शरीर के बीच शरीर संचार होगा - तो यह भी परलोकवत् ही असिद्ध है, जब आदमी जिन्दा होता है तब तो उसके ज्ञान का देखा नहीं गया, और मरण के समय उसके ज्ञान का कौन जान सकता है ? कैसे जान सकता है ? निष्कर्ष :- परलोक ? की परम्परा चालु है, उसके माध्यम से ज्ञान का क्योंकि मध्यवर्त्ती शरीरपरम्परा कहाँ सिद्ध है जन्मान्तरीय शरीर में संचार इस जन्म में तो संचार दूसरे शरीर में होता है यह असिद्ध है । कदाचित् किसी तरह परलोक सिद्ध हो जाय तो भी पूर्व जन्म में किये गये अमुक शुभाशुभ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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