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प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद:
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तथा, त्रैरूप्यमपि हेतोगम्यत एव, यतो व्याप्तिदर्शनकाले व्यापको धर्मः साध्यतयाऽवगम्यते, यत्र तु व्याप्यो धर्मो विवादास्पदीभूते मिण्युपसंहियते स समुदायकदेशतया पक्ष इति तत्रोपसंहृतस्य व्याप्यधर्मस्य पक्षधर्मत्वावगतिः । सा च व्याप्तिर्यत्र धमिप्युपदय॑ते स साध्यधर्मसामान्येन समानोऽथ: सपक्षः प्रतीयत इति सपक्षे सत्त्वमप्यवगम्यते । सामर्थ्याच्च व्यापकनिवृत्ती व्याप्यनिवृत्तियंत्रावसीयते सोऽसपक्ष इत्यसपक्षेऽप्यसत्त्वमपि निश्चीयत इति नार्थः प्रतिज्ञावचनेन : तदाह-धर्मकीतिः-"याद प्रतीतिरन्यथा न स्यात् सर्व शोभेत, दृष्टा च पक्षधर्मसम्बन्धवचनमात्रात प्रतिज्ञावचनमन्तरेणाऽपि प्रतीतिरिति कस्तस्योपयोगः ?" [ ]
यदा च प्रतिज्ञावचनं नरर्थक्यमनुभवति तदा तदावृत्तिवचनस्य निगमनलक्षणस्य सुतरामनुपयोग इति न प्रतिज्ञाद्यवचनमपि प्रकृतसाधनस्य न्यूनतादोषः । केवलं तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य स्वसाध्या
प्रतिज्ञावाक्य अनावश्यक है । हेतु की, विरुद्ध हेतु की तथा अनैकान्तिक हेतु की प्रतीति यदि केवल पक्षधर्मत्व का ही उल्लेख करे तब तो नहीं होगी किन्तु यदि व्याप्तिवाक्य का उल्लेख करे तब क्यों वह प्रतीति नहीं होगी ? जैसे देखिये -'जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है ऐसा कहने पर हेतु का स्पष्ट भान होता है क्योंकि यहाँ साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व का विधान किया जा रहा है, जिसका विधान होता है वही साध्य होता है, तथा वचनविशेष का अनुवाद किया जा रहा है, जिसका अनुवाद किया जाता है वह व्याप्य यानी हेतु होता है क्योंकि साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति अवश्य होती है । तदुपरांत यदि ऐसा कहा जाय कि 'जो वचनविशेष होता है वह असाक्षाकारिज्ञानपूर्वक होता है'- तो यहाँ विपरीत व्याप्तिप्रदर्शन होने से विरुद्ध हेतु की प्रतीति स्पष्ट होगी। तथा 'जो वचनविशेष होता है वह नेत्रादिजन्यज्ञानपूर्वक होता है। ऐसा कहने पर हेतु में विपक्षवृत्तिता यानी व्यभिचार होने से अनैकान्तिकता भी प्रतीत हो जायेगी।
[ हेतु की त्रिरूपता के बोध की भी उपपत्ति ] तीसरी बात, हेतु की त्रिरूपता प्रतिज्ञावाक्य के विना ही ज्ञात की जा सकती है । क्योंकि जब व्याप्ति का प्रदर्शन किया जाता है तो व्याक धर्म का साध्यरूप में बोध होता है । तथा विवादग्रस्त धर्मी में जब व्याप्य धर्म का उपसंहार दिखाया जाता है तो वह उपसंहार में समुदितरूप से व्याप्यधर्म और धर्मी का निर्देश होता है उसके एक देशभृत धर्मी का पक्षरूप भान से होता है और उसमें जिसका उपसंहार किया जाता है उस व्याप्य धर्म की पक्षधर्भता भी अवबुद्ध हो जाती है। व्याप्ति का प्रदर्शन किसी दृष्टान्त में ही किया जाता है, तो जिस दृष्टान्त धर्मी में व्याप्ति दिखायी जाती है वह धर्मी साध्यधर्म की समानता से पक्षसदृश अर्थरूप से प्रतीत होता है यही सपक्ष की प्रतीति हुयी तथा यहाँ सपक्ष में हेतु के सत्त्व की भी प्रतीति साथ साथ हो जाती है। क्षयोपशम के सामर्थ्य से यहाँ ऊहापोह द्वारा "जिस धर्मी में व्यापक यहां नहीं है तो व्याप्य भी नहीं है' ऐसा ज्ञान किया जाता है वही धर्मी असपक्ष यानी विपक्षरूप से प्रतीत होता है और यहाँ विपक्ष में साध्य का असत्त्व भी साथ साथ प्रतीत हो जाता है। निष्कर्षः प्रतिज्ञावाक्य का कोई प्रयोजन नहीं है । जैसे कि धर्मकोत्ति आचार्य का कथन है-"अगर (प्रतिज्ञा वाक्य के विना) प्रतीति न होती तब तो सब कुछ शोभायुक्त है, (किन्तु) प्रतिज्ञा वाक्य के विना भी पक्षधर्म और सम्बन्ध के उल्लेख से ही प्रतीति देखी गयी है फिर उसका क्या उपयोग है ?"
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