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________________ २७४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ तदिदमनालोचिताभिधानम, तथाहि-'यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः' इत्येतावन्मात्रमभिधाय नेव कश्चिदास्ते किन्त हेतोर्धामण्यपसंहारं करोति । तत्र यदि वचन विशेषश्चायं नष्टमुष्ट्यादिविषयो वचनसंदर्भ इति ब्र यात तदा साधर्म्यवत्प्रयोगप्रतीतिः, प्रथाऽसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकश्चे [श्चायमित्यभिदध्यात तदा वैधयंवत इति संबंधवचनपूर्वकात पक्षधर्मत्ववचनात् प्रयोगद्वयावगतिः विवक्षितसाध्यावगतिश्च । हेतु-विरुद्ध-अनैकान्तिका अपि पक्षधर्मवचनमात्रेण न प्रतीयन्ते यदा तु संबंधवचनमपि क्रियते तदा कथमप्रतीतिः ? तथाहि यो वचन विशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते हेतुरवगम्यते विधीयमानेनानद्यमानस्य व्याप्तेः । यो वचनविशेषः सोऽसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते विरुद्धः, विपर्ययव्याप्तेः । यो वचनविशेषः स चक्षुरादिजनितज्ञानपूर्वक इति अनेकान्तिकाध्यवसाय:, व्यभिचारात् । शब्दविशेष साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक है क्योंकि उसमें शब्द विशेषत्व है' इस प्रयोग में शब्द विशेषत्व हेतु की स्पष्ट प्रतीति होती है, तथा 'यह शब्दविशेष असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक है क्योंकि उस में वचनविशेषत्व है' इस प्रकार (संभवत:) विरुद्ध दोष की प्रतीति भी शक्य है, तथा 'यह शब्द विशेष नेत्रादिइन्द्रियजन्य. ज्ञानपूर्वक है क्योंकि उसमें वचन विशेषत्व है। इस प्रकार (संभवतः) हेतु विपक्षवृत्ति होने से अनैकान्तिक दोष का भी स्पष्ट प्रतिभास हो सकता है। तीसरी बात, प्रतिज्ञा वाक्य के विना हेतु के जो तीनरूप होते हैं उनकी भी प्रतीति नहीं होगी, कारण, हेतु का त्रैरूप्य संपूर्णतया साध्य के ऊपर निर्भर है-पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष में असत्त्व ये तीन हेतु के रूप कहे जाते हैं, पक्ष उसे कहते है जहाँ साध्यसिद्धि आकांक्षित है अतः प्रथमहप साध्यावलम्बीहआ, सपक्ष उसे कहते हैं जहाँ साध्य नि:संदेह सिद्ध हो, अतः द्वितीयहप भी साध्यावलम्बी हआ, तथा जहाँ साध्य का अभाव नि शंक हो वह विपक्ष होता है अत: तृतीयरूप भी साध्यावलम्बी हुआ अत: साध्यनिर्देश विना हेतु के तीनरूप की प्रतीति नहीं होगी। प्रतिज्ञा का निर्देश करने पर उसमें जो साध्य का निर्देश किया जायेगा उससे साध्यवान यानी पक्ष का निर्देश फलित होगा क्योंकि अवयव में समुदाय का उपचार किया जाता है। अत: साध्यधर्मी अर्थात पक्ष को स्पष्ट प्रतीति होगी। तथा उसमें प्रतिपादित वचन विशेषत्वरूप हेतु में पक्षधर्मत्व की प्रतीति हो सकेगी। तदुपरांत, साध्यधर्म का समानता से पक्ष का समान धर्मी पक्ष होता है अत: उस में हेत विद्यमान होने पर सपक्षसस्व की प्रतीत होगी। तथा जो सपक्ष नहीं होता वह असपक्ष यानी विपक्ष होता है, उसमें तसत्ता न होने पर विपक्ष-असत्व भी प्रतीत होगा। प्रतिज्ञा वाक्य के इतने लाभ हैं। [उपसंहार वाक्य से प्रयोजन की सिद्धि ] पूर्वपक्षी ने जो विस्तृत प्रतिपादन किया है वह विना सोचे ही सब बोल दिया है, जैसे देखिये - 'जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है' इतना ही बोलकर कोई रुक नहीं जाता किन्तु धर्मि में हेतु का उपसंहार भी किया जाता है। अब इस उपसंहार वाक्य में अगर ऐसा कहें कि 'यह नष्ट-मुष्टि आदि विषयक वचनसंदर्भ भी वचनविशेषरूप ही है' तो यहां साधर्म्यवान् प्रयोग (यानी व्यापक की सिद्धि का प्रयोग) ध्यान में आ जाता है। उसके बदले 'यह वचन संदर्भ असाक्षास्कारिज्ञानपूर्वक है' ऐसा उपसंहार वाक्य बोला जाय तो वैधर्म्यवान प्रयोग ध्यान में आ जाता है। इस प्रकार व्याक्तिसंबंधप्रतिपादकवाक्यसहित पक्षधर्मत्व के वचन से उक्त साधर्म्यवान् अथवा वैधर्म्यवान दो प्रयोगों का तथा आकांक्षितसाध्य का स्पष्ट भान हो जाता है। अत: उसके लिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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