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________________ २७६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ विनाभूतस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वादर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनरभिधानं निग्रह. स्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं वादकथायां क्रियमाणं तद्वक्तुनि ग्रहमापादयति । उपनयवचनं तु हेतोः पक्षधर्मत्वप्रतिपादनादेव लब्धमिति तस्यापि ततः पृथक प्रतिपादने पुनरुक्ततालक्षण एव दोष इति इति न तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवाक्यम्, ततः सर्वदोषरहितत्वात् साधनवाक्यस्य भवत्यत: प्रकृतसा. ध्यसिद्धिः। स्वसाध्याविनाभतश्च हेतुः साध्यमिण्युपदर्शयितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवताचार्येण गाथासूत्रावयवेन तथाभूतहेतुप्रदर्शनं कृतमिति । तथाहि-समयविशासनम्'-इत्यनेन गाथासूत्रावयववचनेन स्वसाध्यव्याप्तस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारः सूचितः । हेतोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः प्रमाणत: सर्वोपसंहारेण प्रदर्शनोया। तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित साध्यमिण्येव प्रवृत्तं तां तस्य साधयति, कदाचित दृष्टान्तामणि। यत्र हि सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्वात्' इत्यादौ प्रयोगे न दृष्टान्तसिद्भावः तत्र व्याप्तिप्रसाधकं प्रमाणं प्रवर्त्तमानं साध्यमिण्येव सर्वोपसंहारेण हेतोः स्वसाध्यव्याप्तिं प्रसाधयति । यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ दृष्टान्तमिणोऽपि सत्त्वं तत्र दृष्टान्तमिण्यपि प्रवृत्तं तव प्रमाणं सर्वोपसंहारेणेव तस्याः प्रसाधकमभ्युपगंतव्यमन्यथा दृष्टान्तर्धामणि हेतोः स्वसाध्यव्याप्तावपि साध्यमिणि तस्य तदव्याप्तौ पूर्वोक्त चर्चा से यह भी फलित होता है कि जब प्रतिज्ञावचन निरर्थक सिद्ध होता है तो साध्य का पुनरावर्तन करने वाला निगमनवचन तो सर्वथा निरुपयोगी हो गया, अत: प्रतिज्ञा आदि वाक्य प्रयोग न किया जाय तो हमारे कथित साधन को कोई दोष लागू नहीं होता । कारण यह है कि प्रतिज्ञादि वाक्य का प्रतिपाद्य जो अर्थ है वह तो अपने स्वसाध्य-अविनाभावि हेतु का पक्ष में उपसंहार दिखाने वाले वाक्य से ही सिद्ध हो जाता है तब जो अर्थत: सिद्ध हो उसकी स्ववाचक शब्द से पुनरुक्ति करना निग्रहस्थान यानी वाद में पराजय हेतु होने से वादसंज्ञक कथा में यदि प्रतिज्ञादिवाक्य का प्रयोग किया जायेगा तो प्रयोक्ता निग्रहप्राप्त हो जायेगा। उपनयवाक्य भी निरुपयोगी है । हेतु की पक्षधर्मता दिखा देने से ही उपनयवाक्य का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, अत: पृथक् रूप से उपनयवाक्य प्रयोग करने पर पुनरुक्ति दोष होने से उसके अकथन में साधनवाक्य की कोई न्यूनता नहीं है। इस प्रकार सर्वदोषशून्य इस वचनविशेषत्वरूप साधनवाक्य से निराबाध प्रकृत साध्य साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि हो जाती है। [ 'समयविसासण' शब्द से व्याप्तिविशिष्ट हेतु का उपसंहार ] वादकथा में साध्यमि पक्ष में स्वसाध्य का अविनाभावि हेतु दिखाना चाहिये-इस अभिप्राय से सूत्रकार सूरिजी ने गाथासूत्र के अवयव से तथाप्रकार के हेतु का उपदर्शन कराया है । जैसे देखिये'समयविशासन' इस गाथासूत्र के अवयव वचन से साध्यमि वचनविशेष में साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक त्वरूप साध्य का अविनाभावि वचनविशेषत्वरूप हेतु का उपसंहार सूचित किया है । हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति यानी अविनाभाविता सकल हेतु और साध्य के उपसंहार दिखाने वाले प्रमाण से प्रशित करनी चाहिये। यह व्याप्ति प्रदर्शक प्रमाण की प्रवृत्ति दो स्थान में होती है-१-कभी कभी साध्यधर्मी पक्ष में ही व्याप्तिसाधक प्रमाण प्रवृत्त होता है, २-तो कभी दृष्टान्तभूत धर्मी में वह प्रवृत्त होता है । यह अब दिखाया जाता है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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