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________________ २६८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ न चात्राऽविसंवादित्वं वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोविशेषणमसिद्धम् नष्ट-मुष्टयादीनां वचनविशेषप्रतिपादितानां प्रमाणान्तरतस्तथैवोपलब्धरविसंवादसिद्धेः । योऽपि क्वचिद् वचनविशेषस्य तत्र विसंवादो भवता परिकल्प्यते सोऽपि तदर्थस्य सम्यगपरिज्ञानात सामग्रीवैकल्यात , न पुनर्वचनविशेषस्याऽसत्यार्थत्वात् । न च सामग्रीवैकल्यादेकत्राऽसत्यार्थत्वे सर्वत्र तथात्वं परिकल्पयितु युक्तम् अन्यथा प्रत्यक्षस्यापि द्विचन्द्रादिविषयस्य सामग्रीवैकल्येनोपजायमानस्याऽसत्यत्वसंभवात समग्रसामग्रीप्रभवस्थाप्यसत्यत्वं स्यात्। अथाऽविकलसामग्रीप्रभवं प्रत्यक्षं विकलसामग्रीप्रभवात् तस्माद् विलक्षणमिति नायं दोषः, तदत्रापि समानम् । तथाहि-सम्यगज्ञाततदर्थाद् वचनाद् यद् नष्ट-मुष्टयादिविषयं विसंवादिज्ञान परिहार करने के लिये अन्य हेतु को छोड कर वचनविशेषरूप हेतु को पकडने से एक साथ दोनों की, सर्वज्ञ की और तत्प्रणीत होने के कारण वचनविशेषस्वरूप आगम के प्रामाण्य की सिद्धि एक साथ हो जाती है । अत: इस बात की सूचना सूत्रकार ने 'कुसमयविसासण' इस गाथावयव के द्वारा प्रदत्त की है । कुसमयविसासण का अर्थ है पृथ्वी की भाँति पदार्थों का शासक यानी प्रतिपादक वचन समूह । इससे सर्वज्ञसिद्धि में यह परिष्कृत हेतु फलित किया जा सकता है किसी एक विषय का अविसंवादी ऐसा वचनविशेष जो न तो लिंगज्ञानप्रयुक्त है, न उपदेशश्रवणप्रयुक्त है और न उसके साथ किसी पदार्थ के अन्वय-व्यतिरेक दर्शन से प्रयुक्त है-ऐसा जो वचनविशेष होता है [ यह तो हेतु निर्देश हुआ, ] वह उस विषय के साक्षात्कारी ज्ञानविशेष से उच्चारित होता है। [ यह साध्य निर्देश हुआ ] जैसे, उदा० हम लोग कहते हैं यह पृथ्वी कठीन है' इत्यादि, तो यह वचन पृथ्वी के काठिन्य का साक्षात्कार करके ही हम बोलते हैं न कि काठिन्य के किसी लिंग को देखकर, अथवा किसी के उपदेश को सुनकर या उसके साथ अन्वय-व्यतिरेक वाले किसी अर्थ के दर्शन से । प्रस्तुत जो शासन यानी द्वादशांगी प्रवचन है वह भी नष्ट और मुष्टिगत इत्यादि अनेकविध अर्थ का प्रतिपादक है किन्तु वह वचनविशेषरूप प्रवचन किसी लिंग दर्शन से, अथवा किसी के उपदेश सुनकर, या उसके साथ अन्वयव्यतिरेक वाले किसी अन्य अर्थ को देखकर प्रयुक्त नहीं है। अतः वह तत्तद् विषय के साक्षात्कारिज्ञान से प्रयुक्त है यह सिद्ध होता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सर्वज्ञ प्रतिपादित होने से यह आगम प्रमाणभूत है। [ 'अविसंवादि' विशेषण की सार्थकता । हमने जो वचन विशेष को 'अविसंवादी' ऐसा विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है । कारण, हमारे आगम में जो नष्ट और मुष्टिगत आदि पदार्थों का प्रतिपादन है वे पदार्थ अन्य प्रमाण से भी उसी प्रकार उपलब्ध होते हैं अत: अविसंवाद सिद्ध होता है। आपने जो कहीं कहीं हमारे आगम में विसंवाद होने की कल्पना की है वह भी उसके सही अर्थ को समझने की सामग्री उपलब्ध न होने के कारण उस वचन के वास्तविक अर्थज्ञान के अभावमूलक है, वचन विशेष असत्याथक होने के कारण नहीं । सामग्री के अभाव में किसी एक दो वचन का अर्थ असत्य प्रतिभासित होने पर भी सभी वचनों में असत्यार्थता की कल्पना उचित नहीं है । यदि ऐसी कल्पना उचित मानी जायेगी तो किसी एक प्रत्यक्ष में चन्द्रयुगल का असत्य प्रत्यक्षदर्शन पूर्ण सामग्री के अभाव में उत्पन्न होता है इस कारण संपूर्ण सामग्री होने पर जो प्रत्यक्षदर्शन होगा उसको भी असत्य ही मानना पड़ेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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