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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः २६७ अयमभिप्रायः-ज्ञत्वप्रमेयत्वादेरनेकप्रकारस्य प्रतिपादितन्यायेन सर्वज्ञसत्त्वप्रतिपादकस्य हेतोः सद्भावेऽपि तत्कृतत्वेन शासनप्रामाण्यप्रतिपादनार्थ सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते, तस्य चान्यतो हेतोः प्रतिपादनेऽपि तदागमप्रणेतृत्वं हेत्वन्तरात् पुनः प्रतिपादनीयं स्यादिति हेत्वन्तरमुत्सृज्य प्रतिपादनगौरवपरिहारार्थं वचनविशेषलक्षण एव हेतुस्तत्सद्भावावेदक उपन्यसनीयः, स चानेन गाथासूत्रावयवेन सूचितः । अत एव संस्कृत्य हेतुः कर्तव्यः । तथाहि-यो यद्विषयाऽविसंवालिंगानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वको वचनविशेषः स तत्साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवः, यथाऽस्मदादिप्रवत्तित: पृथ्वीकाठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचनविशेषः, नष्ट-मुष्टि विशेषादिविषयाविसंवालिंगानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचनविशेषश्चायं शासनलक्षणोऽर्थ इति । [ 'कुसमयविसासणं' पद की सार्थकता ] अब व्याख्याकार आद्य मूल श्लोकान्तर्गत 'कुसमयविसासणं' इस पद की सार्थकता दिखाने के लिये भूमिका में एक शंका उपस्थित करते हैं यदि यह शंका की जाय-"जिस विषय में अविसंवादिवचन विशेष की उपलब्धि होती है केवल उन वचन के हेतु रूप में उस विषय के अविसंवादिज्ञानवत्ता की ही आप सिद्धि कर सके हैं, इतने मात्र से अनंतार्थ के साक्षात्कारि ज्ञान वाला सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता । ऐसे सर्वज्ञ की सिद्धि तो तभी शक्य है जब कोई एक वचनविशेष में समस्त सूक्ष्मादि पदार्थसमूहसाक्षात्कारिज्ञान की कार्यता सिद्ध की जाय । कुछ एक विषय के प्रतिपादक अविसंवादि वचन विशेष तो अनुमानादि ज्ञान से भी जनित हो सकता है किन्तु वैसे अनुमानादि ज्ञान वाले पुरुष को आप सर्वज्ञ नहीं मानते हैं।" इस शंका को मनोगत रख कर मल ग्रन्थकार ने शासन के लिये कसमयविसासण ऐसा विशेषणप्रयोग किया है। समय शब्द में 'सम' उपसर्ग का अर्थ पक यानी अन्य प्रमाणों के साथ विसंवाद न हो इस रीति से, ई-धात का अर्थ है परिच्छेद यानी निर्णय का संपादन । सम और ई धातु से कर्म अर्थ 'समय' शब्द निष्पन्न होने से उसका अर्थ यह हुआ कि जो इस प्रकार निर्णीत किये जाय जिससे अन्य प्रमाणों के साथ विसंवाद न हो ऐसे पदार्थ । ये पदार्थ अनेक प्रकार के हैं जैसे नष्ट वस्तु, मुष्टिगत वस्तु, मनोगत चिता, लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, ग्रहों का उपराग, मन्त्रशक्ति, औषधशक्ति इत्यादि । 'विसासण' शब्द में वि-उपसर्ग का अर्थ है विविध यानी अन्य पदार्थ के कारण रूप और कार्यरूप से इत्यादि अनेक प्रकार से, शासन यानी उन पदार्थों का उपरोक्त प्रकार से प्रतिपादन करने वाला, अतएव वह शासन कहा जाता है-जैसे कि कु यानी पृथ्वी का प्रतिपादक वचन विशेष । इस विशेषण का विशेष तात्पर्य व्याख्याकार ही दिखा रहे हैं - [वचनविशेषरूप हेतु के उपन्यास का प्रयोजन ] ___ 'कुसमयविसासण' इसका विशेष अभिप्राय यह है पूर्व चर्चा में जो युक्तियाँ दिखाई गयी हैं उनके अनुसार सर्वज्ञ सत्ता का प्रतिपादक यद्यपि ज्ञत्व-प्रमेयत्व आदि अनेक प्रकार के हेतु विद्यमान है, तथापि यहाँ वचनविशेष रूप हेतु का ही सर्वज्ञसत्ता साधक रूप में उपन्यास करना उचित है। कारण, जैन प्रवचन स्वरूप आगम का प्रामाण्य वह सर्वज्ञप्रणीत होने के कारण ही संभव है अत एव सर्वज्ञसत्ता स्वीकार की जाती है। अब यदि वचनविशेषरूप हेतु को छोड कर अन्य ज्ञत्व आदि हेतु से उसकी सिद्धि की जायेगी तो 'सर्वज्ञ यह प्रस्तुत आगम का प्रणेता है' इसकी सिद्धि के लिये अन्य कोई हेतु ढूढना पड़ेगा। इस प्रकार दोनों के अलग अलग प्रतिपादन में गौरव होगा, इस दोष का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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