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प्रथमखण्ड का ० १ - सर्वज्ञसिद्धि:
मुत्पद्यते तत् सम्यगवगततदर्थवचनोद्भवाद् विलक्षणमेव । यथा च विशिष्ट सामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न चिद् व्यभिचारः इति तस्याऽविसंवादित्वं तथावगतसम्यगर्थवचनोद्भवस्यापि नष्ट - मुष्टचादिविषय विज्ञानस्येति सिद्धमत्राऽविसंवादित्वलक्षणं विशेषणं प्रकृतहेतोः ।
नागपूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम्, नष्ट-मुष्ट्यादीनामस्मदादीन्द्रियाऽविषयत्वेन तल्लिंग - त्वेनाभिमतस्याप्यर्थस्यास्मदाद्यक्षाऽविषयत्वान्न तत्प्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तौ वाऽस्मदादीनामपि तल्लिगदर्शनाद वचन विशेषमन्तरेणाऽपि ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिः स्यात् । न हि साध्यव्याप्तलिंग निश्चयेऽग्न्यादिप्रतिपत्तौ वचनविशेषापेक्षा दृष्टा, न भवति चास्मदादीनां वचनविशेषमन्तरेरण कदाचनाऽपि प्रतिनियतदिप्रमाण- फलाद्यविनाभूत ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूतवचनप्रणेतुरतीन्द्रियार्थविषयं ज्ञानमलिंगमभ्युपगन्तव्यमित्यलिंगपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेतोर्नासिद्धम् ।
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नाप्ययमुपदेशपरम्परयातीन्द्रियार्थदर्शनाभावेऽपि प्रमाणभूतः प्रबन्धेनानुवर्त्तत इत्यनुपदेशपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिरिति वक्तु युक्तम्, उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे नष्ट - मुष्ट्यादिप्रतिपादकवचन विशेषस्य वक्तुरज्ञान- दुष्टाभिप्राय वचना कौशलदोषैः श्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्य विपर्यस्त बुद्धित्व- गृहीतविस्मरणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यानादौ काले मूलतविरोच्छेद एव स्यात् । तथाहि इदानीमपि केचिद्
[ प्रत्यक्ष और वचनविशेष में अविसंवाद का साम्य ]
यदि यह कहा जाय - संपूर्ण सामग्रीजन्य प्रत्यक्ष और अपूर्ण सामग्रीजन्य प्रत्यक्ष दोनों अन्योन्यविलक्षण ही है, अतः सभी प्रत्यक्ष को असत्य मानना नहीं पडेगा तो यह बात वचनविशेष में भी समान ही है, जैसे- जिस वचन का वास्तव अर्थ अज्ञात है उस वचन से जो नष्ट- - मुष्टि आदि विषयक विसंवादी ज्ञान उत्पन्न होता है, तथा जिसका वास्तव अर्थ ज्ञात है ऐसे वचन से जो नष्ट-मुष्टि आदि विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है ये दोनों अन्योन्य विलक्षण होने से सभी वचन विशेष में असत्यता की आपत्ति नहीं है । जिस रीति से, विशिष्ट परिपूर्ण सामग्रीजन्य प्रत्यक्ष का कभी विषय के साथ व्यभि चार न होने से उसको अविसंवादी माना जाता है, उसी प्रकार जिसका वास्तव अर्थ समझने में आ गया है ऐसे वचन से उत्पन्न नष्ट-मुष्टि आदि विषयक विज्ञान भी व्यभिचार न होने से अविसंवादी माने जायेंगे, तो इस प्रकार वचनविशेषहेतु का अविसंवादिता विशेषण सार्थक सिद्ध होता है ।
[ अलिंगपूर्वकत्व विशेषण की सार्थकता ]
वचन विशेष में जो अलिंगपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है । नष्ट-मुष्टि आदि वस्तुएँ हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर नहीं है, अत एव कोई भी अर्थ उसका लिंग मान लिया जाय, वह भी 'हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर न होने से हम लोगों को उसका भान नहीं होगा । यदि भान होता तब तो उस लिंग को देख कर ही आगमवचन के विना भी हम लोगों को सूर्य-चन्द्रग्रहणादि का भान हो जाता जैसे कि, जब साध्य का अविनाभावि घूम लिंग का निर्णय होता है तो अग्नि आदि के बोध में वचन विशेष की अपेक्षा नहीं रह जाती । किन्तु यह तो सुनिश्चित है - आगम वचन के बिना हम लोगों को कभी भी अमुक सुनिश्चित दिशा में, अमुक प्रमाण में, अमुक फल का अविनाभावि सूर्य-चन्द्रग्रहण होगा ऐसा भान नहीं होता । अतः ऐसे आगमवचन के प्रणेता का अतीन्द्रिय अर्थ विषयक ज्ञान, विना लिंग के उत्पन्न होता है यह मानना पड़ेगा । अतः अलिंगपूर्वकत्व ऐसा प्रकृत तु का विशेषण असिद्ध नहीं है ।
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