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सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
अत एव - *ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धरि ।
सत्येव दाह्य न ह्यग्निः क्वचिद् दृष्टो न दाहकः ॥ [ 1
इत्यत्र यदुक्तं - "कि सर्वज्ञत्वाद् अथ किंचिज्ज्ञत्वाद् इति, नोभयथापि हेतुः । यदि तावत् सर्वज्ञत्वादिति हेत्वर्थ: परिकल्प्यते तदा प्रतिज्ञार्थैकदेशो हेतुरसिद्ध एव, कथं हि तदेव साध्यं तदेव हेतुः ? अथ ज्ञत्वमात्रं हेतुस्तदाऽनैकान्तिकः, ज्ञत्वमात्रस्य किचिज्ज्ञत्वेनाऽप्यविरोधात्" इति तदपि निरस्तम्, 'सामान्येन सर्वज्ञत्वात्' इत्यस्य हेतुत्वात् 'विशेषेण तज्ज्ञत्वस्य साध्यत्वात् । सामान्य-विशेषयोश्च भेदस्य कथंचित् प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् सामान्येन सर्वज्ञत्वस्य चानुमानव्यवहारिणं प्रति साधितत्वात् ।
एतेन 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्' इत्यत्र प्रयोगे प्रमेयत्वहेतोर्यद् दूषणमुपन्यस्तं पूर्वपक्षवादिना तदपि निरस्तम् सर्वसूक्ष्मान्तरितपदार्थानां व्याप्तिप्रसाधकेनानुमानप्रमाणेन वैकेन सामान्यतः प्रमेयत्वस्य प्रसाधितत्वात् । यच्च 'प्रधानपदार्थपरिज्ञानं न सकलपदार्थज्ञानमन्तरेण संभवति' इति तत् सर्वज्ञवचनामृतलवास्वादसंभवो भवतोऽपि कथंचित् संपन्न इति लक्ष्यते । तथाहि तद्वचः - " जे एगं जाणइ ".... [ श्राचारांग - १ - ३ ४ १२२ ] इत्यादि ।
इत्यादि वह भी अयुक्त है, क्योंकि हम सर्वज्ञ को कुछ एक पदार्थसमूह के ज्ञाता नहीं किन्तु सर्वपदार्थों का ज्ञाता मानते हैं ।
[ सर्वज्ञत्वादि हेत्वर्थपरिकल्पनाओं का निरसन ]
सर्वज्ञसाधक युक्तिप्रदिपादक एक प्राचीन उक्ति है जिसमें कहना यह है कि जो ज्ञस्वभाव है वह प्रतिबन्धक न होने पर सर्वज्ञेय के विषय में अज्ञ कैसे रहेगा ? अग्नि है और उसका कोई दाह्य पदार्थ भी है तो अग्नि उसका दाह न करे ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया । इस उक्ति के उपर जो किसी ने चापल्य प्रदर्शित किया है वह भी पूर्वोक्त निवेदन से निरस्त हो जाता है । पूर्वपक्षी उस उक्ति पर यह कहना चाहता है कि- " प्रतिबन्ध के अभाव में सकलज्ञेय के ज्ञाता की सिद्धि में क्या हेतु है - सर्वज्ञत्व अथवा अल्पज्ञता ? दोनों में से एक भी हेतु नहीं हो सकता । जैसे यदि सर्वज्ञत्व को हेतु करेंगे तो
प्रतिज्ञात अर्थ का एक देश होने से हेतु ही असिद्ध हो जायेगा । जो साध्य है उसी को हेतु भी किया जाय यह कैसा ? यदि केवल ज्ञत्व को हेतु किया जाय तो किंचिज्ज्ञत्व के साथ उसका विरोध न होने सेज्ञत्व हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा ।" यह पूर्वपक्षी का निवेदन इसलिये निरस्त हो जाता है कि साध्य और हेतु में कोई ऐक्य है नहीं-हेतु 'सामान्यतः सर्वज्ञता रूप है और साध्य 'विशेषतः सर्वज्ञता' रूप है । यह भी आगे दिखाया जायेगा कि सामान्य और विशेष में कथंत्रित भेद भी होता | हेतु 'सामान्यतः सर्वज्ञत्व' असिद्ध नहीं है क्योंकि 'सर्वमनेकान्तरूपम्' इत्यादि रूप से पहले सामान्यतः सर्वज्ञता को अनुमान से व्यवहार करने वालों के प्रति सिद्ध किया गया है ।
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[ सर्वज्ञतासाधक प्रमेयत्व हेतु में उपन्यस्त दोष का निरसन ]
पूर्वपक्षवादी ने- 'सूक्ष्म, व्यवहित एवं दूरस्थ पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष का विषय हैं क्योंकि प्रमेय हैं - इस [ पृ० १८३ ] प्रयोग में जो प्रमेयत्व हेतु के ऊपर तीन विकल्पों से [ पृ० १८४ ] दोषारोपण किया है वह भी उपरोक्त चर्चा से निरस्त हो जाता है । कारण, सकल सूक्ष्मव्यवहित पदार्थ व्याप्ति
* "दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यात् कथमप्रतिबन्धकः " ।। ४६२ ।। इति किंचिद्भिन्नोत्तरार्धः योगबिन्दौ ।
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