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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः २५७ यदपि-'परस्थरागादिसंवेदने सरागः स्यात' इत्यादि-तदप्यसंगतम् । न हि परस्थरागादिसंवेदनात रागादिमान भवति, अन्यथा श्रोत्रिय द्विजस्यापि स्वप्नज्ञानेन मद्यपानादिसंवेदनाद् मद्यपानदोषः स्यात् । अथाप्यरसनेन्द्रियज तज्ज्ञानमिति नाऽयं दोषस्तहि सर्वज्ञज्ञानमपि नेन्द्रियजमिति कथमशुचिरसास्वाददोषस्तत्रासज्येत? न च रागाविसंवेदनाद्रागीति लोकव्यवहारः, किन्त्वंगनाकामनाद्यभिलाषस्वसंविदितस्याशिष्टव्यवहारकारिणः स्वात्मस्वभावस्योत्पत्तः। न चासौ तत्रेति कथं स रागादिमान् । यदपि-अथ शक्तियुक्तत्वेन सर्वपदार्थवेदनम........इत्यादि-तदप्यचारु । यथा उपलब्धिलक्षणप्राप्ते संनिहितदेशादावनपलब्धः अपरमत्र नास्ति' इति इदानींतनानामियत्तानिश्चयः तथा सर्वज्ञस्यापि स्वशक्तिपरिच्छेदात , अन्यथा घटादीनामपि क्वचित प्रदेशेऽभावनिश्चयेऽपरप्रकारासंभवात् सकलव्यवहारवि. लोप: स्यात् । 'अथ यावदुपयोगिप्रधानपदार्थजातम्' इत्याद्यपि प्रयुक्तम् , सकलपदार्थज्ञत्वप्रतिपादनात् । प्रकार सर्वज्ञज्ञान भी एक साथ अनादि-अनन्त पदार्थों को ग्रहण कर सकता है, अतः उसका अन्त नहीं आने की कोई आपत्ति नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो आप भूत-भावि-वर्तमान-सूक्ष्म-स्थूल पदार्थों को ग्रहण करने वाले वैदिक विधिवाक्यजन्य ज्ञान की परिसमाप्ति कहाँ से मानेगे । अगर कहेंगे कि हम उस को अपरिसमाप्त (यानी अपूर्ण) ही मानते हैं-तब तो "प्रेरणावाक्य भूत-भावि-भविष्य सभी पदार्थों का बोधक है' इत्यादि जो आप का सिद्धान्तवचन है वह अर्थशून्य प्रलाप हो जायगा । [परकीयरागसंवेदन से सरागता नहीं आपन्न होती ] यह जो कहा है-अन्य की आत्मा में अन्तर्गत रागादि का संवेदन मानने पर सर्वज्ञ में सरागिता आपन्न होगी-वह तो असंगत है । कोई भी पुरष अन्यव्यक्ति अन्तर्गत रागादि के संवेदन से सरागी नहीं माना जाता। यदि उसे भी सरागी माना जायेगा तो श्रोत्रिय ब्राह्मण को स्वप्नावस्था में अपने ज्ञान से जब मद्यपान का संवेदन कदाचित् होगा तो उसे मद्यपान का दोष अवश्य लगेगा । यहाँ बचाव करें कि-वह मद्यपानसंवेदन रसनेन्द्रियजन्य न होने से कोई दोष नहीं है, तो सर्वज्ञ का भी परकीयरागादिसंवेदन इन्द्रियजन्य नहीं है तो कैसे आप सर्वज्ञज्ञान में अशुचिरस के आस्वाद की आपत्ति दे रहे हैं ? लोक में रागादि के संवेदन मात्र से 'यह सरागी है ऐसा व्यवहार नहीं होता, किन्तु स्त्री की कामना आदि अभिलाषा से जो स्वानुभवसिद्ध है तथा जिसके कारण अशिष्ट व्यवहार में प्रवृत्ति हो जाती है ऐसा जो अपना (कुत्सित) आत्मीय स्वभाव है वही सभी पुरुष में 'सरागिता' व्यवहार प्रयोजक है । सर्वज्ञ पुरुष का ऐमा कुत्सित स्वभाव न होने के कारण वह कैसे सरागी होगा? [पदार्थ-इयत्ता का अवधारण सुलभ है। यह जो कहा है [ १०२१४ ] -यदि सर्वज्ञ सकलज्ञानशक्ति युक्त होने से सभी पदार्थ को जान लेता है........इत्यादि-वह भी सुन्दर नहीं है। जैसे निकटवर्ती देश आदि में उपलब्धि के योग्य होते हुये भी जो पदार्थ उपलब्ध नहीं होते तब "यहाँ और कुछ नहीं है ( इतना ही है )" ऐसा इयत्तासूचक निश्चय वर्तमान युग के मानवों को भी होता है उसी प्रकार सर्वज्ञ भी अपनी शक्ति का निर्णय कर सकता है। यदि आप इस प्रकार नहीं मानेगे तो घटाभाव आदि सर्वव्यवहार सर्वथा विलुप्त हो जायेंगे । कारण, किसी भी प्रदेश में घटाभाव के निर्णय में एक मात्र योग्यानुपलब्धि ही उपाय है, [ जिसका आप तो अपलाप कर रहे हैं ] और तो कोई उपाय घटाभाव का निर्णायक है नहीं। यह भी जो आपने कहा है [ पृ० २१५ ] - सर्वज्ञ अगर जितने उपयुक्त पदार्थसमूह है उतने को जानेगा.... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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