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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः २५९ तन्मतानुसारिभिः पूर्वाचार्यैरप्ययमर्थो न्यगादि एको भावस्तत्वतो येन दृष्टः, सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टाः। सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः ॥ [ ] अस्यायमर्थः-न सर्वविदा कश्चिदेकोऽपि पदार्थस्तत्वतो दृष्ट शक्यः, एकस्यापि पदार्थस्यानुगतव्यावृत्तधर्मद्वारेण साक्षात पारंपर्येण वा सर्वपदार्थसम्बन्धिस्वभावत्वात । तत्स्वभावाऽवेदने च तस्या:वेदनमेव परमार्थतः, ततस्तज्ज्ञानं स्वप्रतिभासमेव वेत्तीति नार्थो विदितः स्यात्, केवलं तत्राभिमानमात्रमेव लोकस्य। अथ संबन्धिस्वभावता पदार्थस्य स्वरूपमेव न भवति, यत् केवलं प्रत्यक्षप्रतीतं संनिहितमानं स एव वस्तुस्वभावः, संबंधिता तु तत्र परिकल्पितैव पदार्थान्तरदर्शनसंभवतया । तथा चोक्तम्निष्पत्तेरपराधीनमपि कार्य स्वहेतुना । संबध्यते कल्पनया किमकार्य कथंचन ॥ [ प्र. वा. २.२६ ] साधक तर्क संज्ञक प्रमाण के विषयभूत होने से अथवा 'सर्वमनेकान्तात्मकम्' इत्यादि कोई एक अनुमान प्रमाण के विषयभूत होने से सकल पदार्थों में प्रमाणविषयत्वरूप प्रमेयत्व सामान्यतः सिद्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जब तर्क प्रमाण से सकल पदार्थ की किसी एक वाच्यत्वादि धर्म के साथ व्याप्ति सिद्ध की जाती है अथवा अनुमान प्रमाण से सकल पदार्थ में किसी एक धर्म का साधन किया जाता है तब सकलपदार्थ उस तर्क प्रमाण या अनुमान प्रमाण के विषय तो बन ही जाते हैं, इस प्रकार उनमें सामान्यतः प्रमाणविषयत्वरूप प्रमेयत्व की सिद्धि निर्बाध हो जाती है। यह जो आपने कहा है [ पृ० २१५ ]-सकल पदार्थों को जाने विना मुख्य-मुख्य पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है-इससे तो ऐसा लगता है कि आप को भी सर्वज्ञ के वचनामृत का आंशिक रसास्वाद किसी प्रकार उपलब्ध हो गया है। तात्पर्य, हमारे इष्ट का ही आप अनुवाद कर बैठे हैं। जैसे कि यह एक सर्वज्ञवचन आचारांगसूत्र में उपलब्ध है-"जो एक को जान लेता है वह सभी को जान लेता है" । अर्थात् परिपूर्ण अंशों से जो एक पदार्थ जानता है वहीं परिपूर्ण अंशो से सर्व पदार्थ को भी जान पाता है। [ एक भाव के पूर्णदर्शन से सर्वज्ञता ] केवल सर्वज्ञ का वचन ही उक्त विषय में उपलब्ध नहीं है किन्तु सर्वज्ञमतानुयायी पूर्वाचार्यों ने भी इस अर्थ का प्रतिपादन करते हुए कहा है-"जिसने किसी एक ही भाव को तत्त्वत: जान लिया है, वही सकल भाव को सर्वथा सर्वांश में देखने वाला है। जिसने सर्वांश में सकल भाव को देख लिया है वही तत्त्वतः एक भाव को देखने वाला है।"-इसका तात्पर्यार्थ यह है कि जो असर्वज्ञ है वह किसी एक भी पदार्थ को तत्त्वत: देखने में समर्थ नहीं है । कारण, अनुगत और व्यावृत्त धर्म द्वारा साक्षात् अथवा परम्परा से एक पदार्थ भी सर्व पदार्थों के साथ सम्बन्ध रखने के स्वभाव वाला होता है । जब तक इस स्वभाव का संवेदन न हो तब तक परमार्थ से देखा जाय तो उस पदार्थ का संवेदन ही नहीं हुआ है । तो फलित यह हुआ कि उस पदार्थ का ज्ञान केवल अपना प्रतिभासमात्ररूप ही है, वास्तविक सर्वांश में पदार्थ का वेदन उसमें नहीं है। फिर भी लोगों को यह जो अनुभव होता है कि "मैंने इस वस्तु को जान लिया है। वह केवल उनका अभिमान ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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