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प्रथमखण्ड-का०१.सर्वज्ञवाद:
अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमात्यन्तिक: क्षयः, कथं वाऽभ्यस्यमानमप्यविशदं ज्ञानं लंघनोदकतापादिवत प्रकृष्ट प्रकर्षावस्थां वैशयं चाऽवाप्नोतीति ?-नैतत प्रर्यम् , यतो यदि रागादीनामावारकत्वादिस्वरूपं न ज्ञायेत-नित्यत्वमाकस्मिकत्वं वा तेषां स्यात् . तखेतूनां वा स्वरूपाऽपरिज्ञान नित्यत्वं वा संभाव्येत, तद्विपक्षस्य वा स्वरूपतोऽज्ञानं अनभ्यासश्च स्यात, तदैतन्न स्यादपि, यावता रागादीनां ज्ञानावरणहेतुत्वेनावरणस्वरूपत्वं सिद्धम्।
न च तेषां नित्यत्वम् , तत्सद्भावे सर्वज्ञज्ञानस्य प्रतिपादयिष्यमाणप्रमाणनिश्चितस्याभावप्रसंगात । नाप्याकस्मिकत्वम् , प्रत एव । न चैषामुत्पादको हेतु वगतः मिथ्याज्ञानस्य तज्जनकत्वेन सिद्धत्वात् । न च तस्यापि नित्यत्वम् , अन्यथाऽविकलकारणस्य मिथ्याज्ञानस्य भावे प्रबन्धप्रवृत्तरागादि
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"कल मेरा भाई आयेगा" इस प्रकार का प्रातिभ संज्ञक जो ज्ञान उत्पन्न होता हआ किसी किसी का दिखाई देता है वहाँ भित्ति आदि किस प्रकार आवारक हैं ? यह भी बताईये कि जब अतीन्द्रिय भावि काल का विशेषणरूप में अवभास कराने वाला विज्ञान उपलब्ध होता है तो वह असिद्ध कैसे ? एवं इन्द्रिय से अजन्य जो ज्ञान होता है वह सूक्ष्मादि बाह्यार्थ का साक्षात्कार कर लेता है यह भी उपलब्ध है तो वह असिद्ध कैसे ? फिर आपको यह कहने का अवकाश ही कहाँ है-कि 'सर्वज्ञ का ज्ञान अगर इन्द्रियजन्य न होगा तो वह बाह्य एवं अतीन्द्रिय सकल अर्थों का साक्षात्कारी न होगा और स्पष्ट भी नहीं होगा।' हमने जो प्रातिभ आदि ज्ञान का उदाहरण दिखाया है उससे यह नियम फलित होता है कि ज्ञान में सकलपदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव रहने पर भी जब वह इन्द्रियादि से उत्पन्न होता है तो मर्यादित ही रूपादिविषय का ग्राहक होता है, क्योंकि इन्द्रियादि से अजन्य प्रातिभ ज्ञान में मर्यादा का नियम नहीं होता। तदुपरांत आपने जो सर्वज्ञज्ञान के संबंध में यह दोषोद्भावन किया है [ प. २०२] कि "जो अतिशय वाले देखे गये हैं।' इत्यादि तथा 'जहाँ भी अतिशय देखा गया
..वह अतीन्द्रिय सर्वज्ञ ज्ञान के ऊपर किस प्रकार लगेगा जब कि वह ज्ञान ही अतीन्द्रिय हैं । यह तो हम बार बार कह चुके हैं कि अखिल ज्ञेय वस्तु को जानने में समर्थ स्वभाववाला जो ज्ञान होता है उसका अर्थक्षेत्र मर्यादित ही रूप-रसादि नही होता किन्तु सारा ब्रह्मांड होता है ।
[ रामादि के निमूल क्षय की आशंका का उत्तर ] यदि यह प्रश्न किया जाय "रामादि को कदाचित् आवारक मान लिया जाय तब भी उसका आत्यतिक क्षय कैसे संभव है ? तथा, जो ज्ञान अस्पष्ट है, उसका चाहे कितना भी अभ्यास किया जाय किन्तु चरमप्रकर्षप्राप्त एवं स्पष्ट कैसे बन सकता हैं ? किसी एक खड़ा का उल्लंघन करने को शक्ति भी मर्यादित होती है, जल को कितना भी तपाया जाय तो भी वह आखिर ठंडा बन जाता है, सदा के लिये गर्म नहीं रहता अर्थात् उसका अग्नि में परिवर्तन नहीं हो जाता। इसी प्रकार अस्पष्ट स्वभाव वाला ज्ञान आखिर अस्पष्ट ही रहेगा, स्पष्ट कसे हो सकेगा ?"- यह प्रश्न करना व्यर्थ है क्योंकि रागादि का क्षय ऐसी स्थितियों में न होने की संभावना है-१-रागादि का आवरणस्वरूप ज्ञात न हो, २-३ रागादि नित्य हो या आकस्मिक हो, ४-रागादि के हेतुओं का स्वरूप अज्ञात हो या ५-वे नित्य हो, ६- रागादि के प्रतिपक्ष का स्वरूप अज्ञात हो या ७-उसका अभ्यास अशक्य हो। ये सभी स्थितियाँ असिद्ध है । जैसे कि, १-रागादि ज्ञान का आवारक है अतः उनकी आवारकरूपता प्रसिद्ध ही है।
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