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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यदप्यभ्यधायि-'रजोनीहाराधावरणापाये वृक्षादिदर्शनवद् रागाद्यावरणाभावे सर्वज्ञज्ञानं वैशधभाग भविष्यति' 'न च रागादीनामावारकत्वं सिद्धम्'...'इत्यादि तदप्यसंगतम् कुड्यादीनामप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामावारकत्वाऽसिद्धेः । तथाहि-सत्यस्वप्नप्रतिभासस्यार्थग्रहणे न कुड्यादीनामावारकत्वम् , निश्छिद्रापवरकमध्यस्थितेनापि भाव्यतीन्द्रियाद्यर्थस्याऽन्तरावरणा(?ण)भावे प्रमाणान्तरसंवादिन उपलम्भाव, कुड्यादीनां त्वावरणत्वे तदर्शनमसम्भव्येव स्याव , तथाप्रतिभासेनादृष्टार्थेऽपि कुड्यादीनां नावारकत्वम् ।
यच्च प्रातिभं ज्ञानं जाग्रदवस्थायां शब्दलिंगाक्षव्यापाराभावेऽपि 'श्वो भ्राता मे आगन्ता' इत्याकारमुत्पद्यमानमुपलभ्यते तत्र कुड्यादीनां कथमावारकत्वम् ? कथं वा विज्ञानस्य नातीन्द्रियविशेषणभूतश्वस्तनकालाद्यवभासकत्वम, अनिन्द्रियजस्य च ज्ञानस्य बाह्य-सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारित्वं न सिद्धम् येन सर्वज्ञज्ञानस्यानक्षजत्वे वाह्यातीन्द्रियादिसकलपदार्थसाक्षात्करणं स्पष्टत्वं च न स्यात्' इत्यादि प्रेर्येत? अत एव सकलपदार्थहरणस्वभावस्य ज्ञानस्येन्द्रियादिजन्यत्वक्रत एवं प्रतिनियतरूपादिग्राहकत्वनियमोऽवसीयते, प्रातिभादौ तदजन्ये तस्याऽभावात् । सकलज्ञज्ञानं चातीन्द्रियमिति कथं "येऽपि सातिशया दृष्टाः" इत्यादि तथा "यत्राप्यतिशयो दृष्टः' [ श्लो. वा० २-११४ ] इत्यादि च दूषणं तत्र क्रमते ? न हि ज्ञानस्याशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्य कश्चित् प्रतिनियमो रूपादिकः स्वार्थः संभवति इत्यसकृदावेदितम् ।
कहा था वह अहचिकर है, कारण, यह दृष्टान्त सर्वांश में उपादेय हम भी नहीं मानते हैं, केवल "भावना के बल से उत्पन्न ज्ञान स्पष्ट होता है" इतने ही अंश में उक्त दृष्टान्त प्रस्तुत है, अतः साध्यधर्मी में दृष्टान्त अन्तर्गत सभी इष्टा-निष्ट धर्मों का आपादन करना अनुचित है। क्योंकि ऐसे आपादन को उचित मानने पर अनुमान मात्र का उच्छेद होकर रहेगा, कारण, हर कोई दृष्टान्त में अनिष्ट धर्म सुलभ रहता है। अनुमानगृहीतार्थ को स्पष्टता का जब भावना के बल से स्पष्टताप्रतिभासक अभ्यासोत्पन्न ज्ञान में अनूभव किया जाता है तो वहाँ तनिक भी उलटेपन का संभव नहीं है जिससे कामान्ध नर के सोपप्लवज्ञानवत इस स्पष्टता भासक ज्ञान को उपप्लवग्रस्त कहा जा सके।
[भित्ति आदि की अवारकता की भंगापत्ति ] यह भी जो आपने कहा है [ पृ० २१३ ] "संभव है कि रजकण और धुमस आदि आवरण हठ जाने पर वृक्षादि दिखाई देता है उसी तरह रागादि आवरण के हठ जाने पर स्पष्टतालंकृत सर्वज्ञज्ञान का आविर्भाव होगा, किंतु रागादि यह आवरणभूत हैं ऐसा सिद्ध ही कहाँ है ?" इत्यादि........वह भी असंगत है, रागादि को अगर आप ज्ञानावारक नहीं मानते हैं तो भीति आदि को भी क्यों मानते हैं ? भित्ति आदि में भी अन्वय-व्यतिरेक से आवरणत्व असिद्ध है। जैसे-जो स्वप्न प्रतिभास सत्य होता है, उस प्रतिभास से होने वाले दूरस्थ अर्थग्रहण में भित्ति आदि आवारक-प्रतिबन्धक नहीं होते हैं। यह अनुभवसिद्ध है कि यदि स्वप्नदृष्टा छिद्ररहित कक्ष के मध्य भाग में सो गया हो तब भी उसको भावि, अतीन्द्रिय आदि प्रमाणा-तरसंवादि वस्तु का उपलम्भ बीच में आवरण होने पर भी होता है, यदि भित्ति आदि आवारक होते तो यह सत्यस्वप्न दर्शन कभी नहीं होता। जब दृष्ट अर्थों के प्रतिभास में यह बात है तो अदृष्ट अर्थ में भी भित्ति आदि की आवारकता सिद्ध नहीं होती।
[ सर्वज्ञज्ञान में अस्पष्टत्वापत्ति का निरसन ] यह भी सोचिये कि जागृति अवस्था में शब्द, लिंग या इन्द्रिय के निश्चेष्ट होने पर भी
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