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प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद:
२४७
यदप्युक्तम्-'अनुमानज्ञानेन सकलज्ञत्वाभ्युपगमेऽस्मदादीनामपि तत् स्यात् , भावनाबलात् तद्वैशद्ये तु कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इवाऽसर्वज्ञत्वम् , तज्ज्ञानस्य तद्वद् उपप्लुतत्वप्राप्तेः' इति, तदप्यचारु, यतो भावनाबलाज्ज्ञानं वैशधमनुभवतीत्येतावन्मात्रेण दृष्टान्तस्योपात्तत्वाद् । न सकलदृष्टान्तधर्माणां साध्यमिण्यासञ्जनं युक्तम् , तथाऽभ्युपगमे सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तेः । न चानुमानगृहीतस्यार्थस्य भावनाबलाद् वैशधं तत्प्रतिमासिन्यभ्यासजे ज्ञानेऽनुभवतो वैपरीत्यसंभवो येन तदवभासिनो ज्ञानस्य कामाद्यपप्लुतज्ञानस्येवोपप्लतत्वं स्यात।
तो शब्दजन्य ज्ञानवान् को सकलवस्तुज्ञाता कैसे माना जाय....इत्यादि,-वह असंगत है। कारण, अभ्यास द्वारा वैशद्य यानी विशिष्टनिर्मलता जिस में संपादित नहीं की गयी है ऐसे केवल शब्दोत्पन्न ज्ञान के द्वारा हम किसी को सर्वज्ञ नहीं मान लेते हैं, किन्तु अभ्यास के माध्यम से सकल विशेषताओं का साक्षात्कार किया जा सके इस प्रकार की निर्मलता के संपादन से अलंकृत ज्ञान द्वारा ही हम किसी को सर्वज्ञ मानते हैं । जब हमारी सर्वज्ञज्ञान की मान्यता ही इस प्रकार निर्दोष है तो यह जो आपने कहा था-"शब्दजन्य ज्ञान से सर्वज्ञता मानने पर विधिवाक्य के द्वारा हम लोगों को भी अतीत, अनागत, सूक्ष्मादिपदार्थविषयक ज्ञान विद्यमान होने से हम लोग सर्वज्ञ यह आपका कथन ध्वस्त हो जाता है क्योंकि हम लोगों को अभ्यासजन्य सकलपदार्थविषयक स्पष्टज्ञान है ही नहीं । अनुमान के चौथे विकल्प के प्रतीकार में यह जो आपने कहा था (पृ० २१२) "सर्वज्ञज्ञान यदि लिंगजन्य माना जायेगा तो उस लिंग ज्ञान में लिंग के साथ अतोन्द्रिय धर्माधर्मादिसर्वपदार्थों का सम्बन्धबोध शक्य नहीं है, अत एव साध्य के साथ अज्ञात संबंध वाले लिंग से धर्मादि साध्य का अनुमान बोध का उद्भव भी असंभव है इत्यादि"....वह भी संगत नहीं है, क्योंकि जिस हेतु का धर्मादि अतीन्द्रियपदार्थों के साथ संबन्ध ज्ञात है ऐसा हेतु प्रसिद्ध है। जैसे, जिस पुरुष ने हत्पर का पान कर लिया है उसकी कुक्षि में अन्तर्गत वह हत्पुर द्रव्य यद्यपि अतीन्द्रिय है फिर भी उसका ज्ञान स्व स्व विषय को ग्रहण करने में समर्थ होता हुआ भी नशे में अपने विषय को ग्रहण नहीं करता है, इस लिंग से उस पुरुष में विशिष्ट द्रव्य (हृत्पूर) के संबन्ध का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार मनुष्य का ज्ञान सर्ववस्तु के ग्रहण में समर्थ होता हुआ भी अनेक विशेष पदार्थरूप अपने विषय को ग्रहण करता नहीं है, कारण कोई विशिष्ट द्रव्य संबन्ध होना चाहिये । यह विशिष्ट द्रव्य ही जैन मत में अद्दष्ट है । जिसका लिंग से भान होता है। यहाँ हेतु अप्रसिद्ध नहीं है क्योंकि सभी वस्तु अनेका तमय है इ प्रकार सामान्यत: ज्ञान होने पर भी तत्तद् वस्तु गत सकल विशेषों की अग्राहकतारूप हेतु हम लोगों के ज्ञान में अति प्रसिद्ध है जिससे विशिष्ट द्रव्यसंवन्ध सिद्ध होता है । तो इस प्रकार हेतु के बल से पुद्गलमय (न कि गुणादिरूप) अतीन्द्रिय धर्माऽधर्मादि की सिद्धि निर्बाध है ।
[ भावनावल से ज्ञानवैशद्य का समर्थन ] और भी जो आपने कहा था [ पृ० २१२ ]-"अनुमानजन्य ज्ञान से यदि सर्वज्ञता का स्वीकार करोगे तो हम लोग आदि भी सर्वज्ञ बन जायेंगे। यदि भावना के बल से उस ज्ञान में स्पष्टता का आधान मानेंगे तो कामविकारग्रस्त मनुष्य को कामवासना के बल से पत्नी आदि न होने पर भी जैसे उसका स्पष्ट संवेदन होता है किन्तु वह पूर्णतः भ्रान्त होता है उसी प्रकार भावना के बल से उत्पन्न ज्ञान भी उपप्लवग्रस्त होने के कारण भ्रान्त होने से सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं हो सकेगी"-यह जो
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