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प्रथमखण्ड-का० १ सर्वज्ञवाद:
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यच्चानुमानेन सर्वज्ञाभावसाधने दूषणमभिहितम् , कि प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वान' इत्यादि-तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् । तथाहि-तत्रापि ववतु शक्यते-किं साध्यमिसम्बन्धी धूमो हेतु वेनोपन्यस्त', उत दृष्टान्तमिसम्बन्धी ? तत्र यदि साध्यमिसम्बन्धी हेतुस्तदा तस्य दृष्टान्तेऽसम्भवादनन्वयदोषः । अथ दृष्टान्तमिसम्बन्धी सोऽसिद्धः, दृष्टान्तमिधर्मस्य साध्यमिण्यसम्भवात् । अथोभयसाधारणं धमत्वसामान्यं हेतुस्तदा तस्य विपक्षेऽनग्नौ विरोधासिद्धः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन स्वसाध्याऽगमकत्वम् ।
प्रथ विपक्षेऽनग्नौ धमस्यानुपलम्भाद, विरोधसिद्धर्न संदिग्धविपक्षव्यावत्तिकत्वम् । नन्वत्रापि वक्तु शक्यं सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसम्भवात् अनग्नौ देशान्तरे कालान्तरे वा केनचिद् धूमस्योपलम्भात् । तदुपलब्धिमत. कस्यचिदभावात् सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य सम्भव' इति चेत् ? केन पुनः प्रमाणेनानग्नौ धूमसत्त्वग्राहकपुरुषाभावो प्रतिपन्नः ? यद्यन्यतः प्रमाणात्, तत एवानग्नेधू मस्य व्यावृत्तिसिद्धेय॑थं सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भलक्षणस्य विपक्षे धूमविरोधसाधकस्य प्रमाणस्याभिधानम् । अथ सिद्धि के लिये हमारी ओर से उपमान प्रमाण के उपन्यास की आशंका बुद्धि से जो यह कहा है कि उसमानभूत और उपमेयभूत सकल नरपर्षदा के साक्षात्कार होने पर ही उपमान प्रमाण प्रवृत्त हो सकता है-इत्यादि-इत्यादि-यह सब अपनी तुच्छ जाति का ही अनावरण करने जैसा है। तथा 'सर्वज्ञता अतीन्द्रिय होने से प्रवर्तनान या निवर्तमान किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष से उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता' इत्यादि यह भी जो सर्वज्ञवादी ने कहा है वह सब अभ्युपगम्वाद से ही ध्वस्त हो जाता है । क्योंकि हम भी यह मानते ही हैं कि प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति या निवृत्ति से सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता।
[ धूम से अग्नि के अनुमान में समान दोषारोपण-विरोधी ] आगे चलकर सर्वज्ञविरोधी कहता है कि सर्वज्ञवादी की ओर से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में जो दूषण दिये गये हैं-"प्रमाणान्तरसंवादि अर्थ का वक्तृत्व हेतु बनायेंगे या उससे विपरीत...." इत्यादि, यह सब धूमहेतु से अग्नि-अनुमान में भी समानरूप से लागू किया जा सकता है जैसे यहां भी कहा जा सकता है-'अग्निमान धूमात्' यहाँ साध्यधर्मीपर्वतवृत्तिधूम का हेतुरूप से उपन्यास करते हैं या दृष्टान्तधर्मी पाकशालागत धूम को हेतु करते हैं ? यदि पर्वतवृत्तिधूम को हेतु करेंगे तो दृष्टान्त -पाकशाला में वह न होने से आप अन्वय व्याप्ति को ही सिद्ध नहीं कर सकेंगे। अगर दृष्टान्त पाकशाला गत धूम को हेतु करते हैं तो साध्यधर्मी पर्वत में दृष्टान्त पाकशाला का धर्मभूत धूम का संभव न रहने से हेतु असिद्ध हो जायगा। यदि उभय साधारण धूमत्व रूप सामान्यधर्म को हेतु बनायेंगे तो अग्निशून्य विपक्ष तालाब आदि में धूमत्व का किसी वस्तु के साथ विरोध सिद्ध न होने से वहाँ तालाब आदि में धूमत्व के अस्तित्व का संदेह शक्य होने से हेतु की विपक्ष से निवृत्ति संदिग्ध हो जायेगी जिस से वह साध्यसिद्धि में दुर्बल बन जायेगा।
[धृम में विपक्षव्यावृत्ति के संदेह का समर्थन] यदि यह कहा जाय कि-'अग्निशून्य विपक्ष में धूम का उपलम्भ न होने से विरोध सिद्ध हो जाता है अत: विपक्ष से हेतु की निवृत्ति संदिग्ध नहीं रहती।'-तो यहाँ भी प्रतिवादी कह सकता हैअग्निशून्य किसी देशान्तर में कोई एक काल में किसी पुरुष को धूम की उपलब्धि शक्य होने से सभी
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