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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यज्जातीयैः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत" ॥
[ श्लो० वा० सू० २/११३ ] पुनरप्युक्तम्येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ।।
[तत्त्व० ३१५९ ] यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनाद । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्थान रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥
[ श्लो० वा० सू० २-११४ ] इत्यादि । तेनाऽत्रापि-स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदूषणम् उपमानोपन्यास बुद्ध्या वाऽशेषो. पमानोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमानं प्रवर्तते-इत्यादि दूषणाभिधानं च सर्वजवादिनः स्वजात्याविष्करणमात्रकमेव । अतः ‘अतीन्द्रियसर्वविदो न प्रत्यक्ष प्रवृत्तिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वाऽभावसाधनम्' इत्यादि सर्वमभ्युपगमवादानिरस्तम्।
[ श्लोकवात्तिककार के अभिप्राय का समर्थन ] श्लोकवात्तिककार ने भी 'यदि' पदार्थ के आरोपण द्वारा प्रसंग साधन में अभिप्राय रख कर यह कहा है--
"यदि (वेद सहित) छह प्रमाणों से सर्ववस्तुज्ञाता कोई मौज़द हो तो उसका कौन निवारण करता है ? । [तात्पर्य, यदि सर्वज्ञ माना जाय तो वह प्रत्यक्षादि छह प्रमाणों से सर्व वस्तु का ज्ञाता होने का कदाचित् मान सकते हैं-ऐसा कहने में, आखिर हमने सर्वज्ञ को मान लिया-यह बात नहीं है, अगर माना जाय तो ऐसा माना जाय-यह अभिप्राय है ] ।
"एक ही (प्रत्यक्ष )प्रमाण वाले सर्वज्ञ की जो कल्पना करते हैं ( उनके मत में तो ) वह सर्वज्ञ केवल नेत्र से ही सभी रस-गन्धादि को देख लेता होगा।''[ तात्पर्य यह है कि एक ही नेत्रादिइन्द्रिय से उसकी विषयमर्यादा का अतिक्रमण करके रसादि का ज्ञान मानना युक्तियुक्त नहीं है ]
___"वर्तमान काल में जिस जाति के प्रमाण से जिस जाति के अर्थ का दर्शन उपलब्ध होता है, कालान्तर में भी वह ऐसा ही था' [ तात्पर्य, वर्तमानकालीन प्रमाणों का जैसा स्वभाव है कतिपयार्थदर्शन, यह स्वभाव भूतकाल में भी ऐसा ही था, अन्य प्रकार का नहीं ]
और भी कहा गया है--
"( भिन्न भिन्न प्रकार की ) प्रज्ञा और बुद्धि आदि से अतिशय वाले जो मनुष्य दिखायो देते हैं वे भी अतीन्द्रिय अथ दर्शन से सातिशय नहीं है किन्त ( थोडे थोडे ) अन्तर से है" [ तात्पर्य, कोई २५-५० हाथ दूरस्थ वर तु को देख सकता है तो कोई हजार दो हजार हाथ दूररथ वन्तु को देख सकता है- यही अतिशय है ]
''जहाँ भी अतिशय देखा जाता है वह अपनी विषय मर्यादा का अतिक्रमण न करता हुआ ही देखा जाता है, दूरवर्ती पदार्थ का दर्शन और सूक्ष्म वस्तु का दर्शन-इस रूप में ही देखा जाता है किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय से रूप का ग्रहण होता हो ऐसा नहीं देखा जाता है ।
उपरोक्त से यह फलित होता है कि सर्वज्ञवादी ने हमारे प्रसंगसाधन को स्वतन्त्र अनुमानरूप समझ कर जो आश्रयासिद्धि आदि दूषण कहा है, तथा अतीत अनागत पुरुषों में वर्तमानपुरुषतुल्यता
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