SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड का ० १ - सर्वज्ञवाद: 'कथं पुनरत्र प्रसंग: विपर्ययो वा क्रियते ?' इति चेत् ? तदुच्यते- “सार्वज्ञं प्रत्यक्षं यद्यभ्युपगम्यते तदा तद् धर्मग्राहकं न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात् । न चासिद्धो हेतु । तथाहि - विद्यमानोपलम्भनमतीन्द्रियार्थज प्रत्यक्षम्, सत्संप्रयोगजत्वात् । अस्याप्यसिद्धतोद्भावने एवं वक्तव्यम् विवादगोचरं प्रत्यक्षं सत्संप्रयोगजम्, प्रत्यक्षत्वात् तच्छन्दवाच्यत्वाद्वा । अस्मदादिप्रत्यक्षं सर्वत्र दृष्टान्तः ।" इति प्रसंग: । विपर्ययस्त्वेवम्- "तद् धर्मग्राहकं चेत् न विद्यमानोपलम्भनम्, अविद्यमानत्वाद् धर्मस्य | अविद्यमानोपलम्भनत्वे न सत्संप्रयोगजम् । असत्संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्षम् नापि तच्छब्दवाच्यम्” । २०१ प्रसंगसाधनाभिप्रायेणैव 'यदि' प्रर्थोपक्षेपेण वात्तिककृताप्यभिहितम् - "यदि षड्भि प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते ? ॥ [ ] [ श्लो० वा०सू०२-१११ उ० ] एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते । नूनं स चक्षुषा सर्वत्रसादीन् (? सर्वान् रसादीन् ) प्रतिपद्यते ।। न्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला प्रत्यक्ष नहीं है। यहां दो प्रश्न है- १. उक्त निषेध में अतीन्द्रियपदार्थविषयकप्रत्यक्षात्मक धर्मों का निषेध अभिमत है ? या अतीन्द्रियपदार्थविषयकज्ञान में प्रत्यक्षत्वधर्म का निषेध अभिमत है ? प्रथम पक्ष में जिस हेतु से आप धर्मी का निषेध करना चाहते हो वह आश्रयासिद्ध हो जायेगा क्योंकि धर्मीस्वरूप आश्रय ही असिद्ध है । दूसरे पक्ष में प्रत्यक्षत्व धर्म का निषेध करने पर अतीन्द्रियपदार्थविषयक ज्ञान को अन्य प्रमाणरूप से मानने की आपत्ति आयेगी क्योंकि जैसे ब्राह्मण्य का निषेध वैश्यत्वादि में सम्मति सूचक होता है वैसे यहां प्रत्यक्षत्वरूप एक विशेष का निषेध अन्य प्रमाणरूप विशेष के विधान में फलित होगा ।" सर्वज्ञवादी के इस कथन को अप्रेर्य यानी अवसरशून्य दिखाने नास्तिक का यह अभिप्राय है कि हम विशेष निषेध को अन्य अर्थ में सम्मतिफलक नहीं मानते किंतु उस विशेषरूप से तद् तद् वस्तु के सत्त्व का निषेध ही सम्मत है । आपने जो धर्मीरूप आश्रय की असिद्धि का दोष दिखलाया है वह भी अनवसर है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि हम धर्मी को 'यदि' पद के अर्थरूप में ही स्वीकारते हैं । [ सर्वज्ञाभावप्रतिपादक प्रसंग और विपर्यय ] सर्वज्ञवादी को यह जानना हो कि ये प्रसंग - विपर्यय किस प्रकार कहते हो तो यह हम दिखाते हैं प्रसंग :- सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष कदाचित् मान भी लिया जाय तो वह धर्मग्राहक नहीं होता । क्योंकि वह प्रत्यक्ष विद्यमान का ही ग्राहक है । इस प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है, जैसे- अतीन्द्रियार्थजन्य प्रत्यक्ष विद्यमान का ग्राहक है क्योंकि सत्पदार्थसम्पर्क से जन्य है । यहाँ भी हेतु में असिद्धि का उद्भावन किया जाय तो प्रतीकार में यह कहेंगे कि विवादास्पद प्रत्यक्ष सत्पदार्थसम्पर्क जन्य है क्योंकि प्रत्यक्ष है, अथवा प्रत्यक्षशब्दवाच्य है इसलिये । तीनों स्थल में हमारे प्रत्यक्ष को दृष्टान्तरूप में प्रस्तुत समझना । यह प्रसंग हुआ । विपर्यय: - यदि वह प्रत्यक्ष धर्मग्राही है तो वह विद्यमान का ग्राहक नहीं होना चाहिये क्योंकि धर्म उसकाल में विद्यमान नहीं होता [ किन्तु भावि में निष्पाद्य होता है ] । विद्यमान का उपलम्भक=ग्राहक न होने पर वह प्रत्यक्ष सत्पदार्थ संपर्कजन्य नहीं होगा और सत्पदार्थसंपर्कजन्य न होने पर वह न तो प्रत्यक्ष होगा, न तो प्रत्यक्षशब्द से व्यवहार योग्य होगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy