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________________ २०० सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ यतो न प्रसंगसाधने आश्रयासिद्धत्वादिदूषणं क्रमते, नहि प्रमाणमूलपराभ्युपगमपूर्वकमेव प्रसंगसाधनं प्रवर्तते । किं तहि ? 'यदि' श्रर्थाभ्युपगमदर्शनपूर्वकम् । अत एव "प्रसंगसाधनस्य विपर्ययफलत्वम्, विपर्ययस्य च प्रतीन्द्रियपदार्थविषय प्रत्यक्ष निषेधफलत्वम्, तनिषेधे च " कि प्रत्यक्षस्य धर्मिणो निषेध:, श्रथ तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वस्येति ? पूर्वस्मिन् पक्षे हेतुनामाश्रयासिद्धतेति प्रतिपादितम् उत्तरत्र प्रत्यक्षत्वनिषेधे प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः, विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात् " इति न प्रेर्यम यतो विशेषनिषेधे तस्य विशेषरूपत्वेन सत्वस्यैव प्रतिषेधः, न च धर्म्यसिद्धत्व दिदोषः, 'यदि' अर्थस्याभ्युपगतत्वात् । लगेगा । दूसरी ओर सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष तो आपके मत में अप्रसिद्ध है तो शशसिंगवत् उसके धर्मज्ञान में अनिमित्त होने का विधान कैसे हो सकता है ? यदि मीमांसक कहेगा कि पर वादी को सर्वज्ञ मान्य होने से उसके प्रति परमतप्रसिद्धि द्वारा पर वादी के प्रति 'सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष धर्मज्ञान का अनिमित्त है यह विधान कर रहे हैं तो यह अयुक्त है । कारण, 'अभ्युपगम तो परीक्षामूलक ही होना चाहिये' यह मर्यादा है, पर वादी का अभ्युपगम यदि परीक्षापूर्वक है तो वह आपका भी परीक्षामूलक होना जरूरी है । तथा परीक्षा स्वयं प्रमाणरूप होने से यदि कोई परकीय अभ्युपगम प्रमाणसिद्ध है तो वह केवल पर के लिये नहीं किन्तु सभी के लिये प्रमाणसिद्ध होगा क्योंकि प्रमाणसिद्ध भाव सभी को माननीय होता है । यदि प्रमाण के विना ही पर वादी ने सर्वज्ञ प्रत्यक्ष को मान लिया है तब तो वह प्रमाण न होने से उसका अभ्युपगम करना उचित नहीं है । यदि हमारे प्रत्यक्ष से सर्वथा विलक्षण सर्वज्ञ प्रत्यक्ष का स्वीकार प्रमाणमूलक है तब तो 'वह धर्मज्ञान का अनिमित्त है' ऐसा विधान नहीं कर सकते क्योंकि सर्वज्ञप्रत्यक्ष और हमारे प्रत्यक्ष में यही तो विलक्षणता है कि सर्वज्ञप्रत्यक्ष धर्मादि का ग्राहक है, हमारा वैसा नहीं है। ऐसे विलक्षण सर्वज्ञ प्रत्यक्ष का स्वीकार यदि प्रमाणमूलक है तो धर्मज्ञान के प्रति उसकी अनिमित्तता कैसे युक्तिसंगत कही जाय ? क्योंकि धर्मादि के ग्राहक रूप में सिद्ध होने वाले सर्वज्ञप्रत्यक्ष के साधक प्रमाण से ही उसकी धर्मज्ञान- अनिमित्तता बाधित हो जाती है । दूसरी बात यह है कि "धर्मज्ञान प्रमाण से धर्मादिग्राहकरूप में प्रसिद्ध जो सर्वज्ञ प्रत्यक्ष है वह धर्मादि का ग्राहक नहीं है" इस वाक्य का अर्थ परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादक है अतः वह प्रमाण नही है । [ सर्वज्ञवादी कथन समाप्त ] [ नास्तिक द्वारा सर्वज्ञयादिकथित दूषणों का प्रतीकार ] नास्तिक ने सर्वज्ञवादी के उक्त प्रतिपादन को अवक्तव्य यानी 'न कहे जाने योग्य' इसलिये कहा है कि प्रसंग साधन जिस विषय को लेकर किया जाता है वहां वह विषय असिद्ध रहने पर भी आश्रयासिद्धि आदि दूषण लागू नहीं होते । क्योंकि यह कोई सिद्धान्त नहीं है कि प्रसंगसाधन जिस परकीय अभ्युपगम के उपर किया जाता है वह परकीयमत प्रमाणमूलक ही होना चाहीये । ' प्रमाण मूलक नहीं तो कैसा होना चाहीये' ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि 'यदि' पद का जो अर्थ है कृत्रिम स्वीकार [ इच्छा न होने पर भी क्षणभर मान लिये गये ] उसके प्रदर्शन पूर्वक होना चाहीये। अब सर्वज्ञवादी को यह भी कहने का अवसर न रहा कि "जहाँ प्रसंग साधन किया जाता है वहां परिणामतः उसका विपर्यय ही फलित किया जाता है । प्रस्तुत में सर्वज्ञ के विषय में प्रसंग साधन करने पर उसका विपर्यय यानी सर्वज्ञाभाव फलित होगा । विपर्यय का भी फल तो यही निपजाना है कि अती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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