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________________ १९० सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ भाव: कुत: सिद्ध: ? अन्यतः प्रमाणात् चेत् तत एव तदभावसिद्ध रस्य वैद्यर्थ्यम् । अत एवानुमानात् ' इति न वक्तव्यम्, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् । सिद्धेऽतोनुमानात् सर्वज्ञाभावे सर्व सम्बन्ध्यनुपलम्भसंभवसामर्थ्याइ हेतोविपक्षतो व्यावृत्तिः स्यात्, तस्य च विपक्षाद् व्यावृत्तस्य तत्साधकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । भवतु वा सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भसंभवस्तथापि सकलपुरुष चेतोवृत्तिविशेषाणामसर्वशेन ज्ञातुमशक्तेरसिद्धः सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भ इति न ततो विपक्षव्यावृत्तिनिश्चयो वक्तृत्वस्येति कुतः संदिग्ध - विपक्षव्यावृत्तिकाद् हेतोस्तदभावसिद्धिः ? नापि स्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भात् तद्वयतिरेकनिश्चयः तस्य स्वपितृव्यपदेशहेतुनाऽप्यनैकान्तिकत्वात् । न चैवंभूतादपि हेतोः साध्यसिद्धिः । तथाभ्युपगमे न कश्चिद् सर्वज्ञाभावमवबुध्यते, वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुषवत्' इति तदभावावगमाभावस्यापि सिद्धिः स्यात् । श्रथान्यत्रापि हेतावयं दोषः समानः इति सर्वानुमानोच्छेदः । तदयुक्तम् - अन्यत्र विपक्षव्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण बाधकप्रमाणस्य सद्भावात् । न चात्रापि तस्य सद्भावः शक्यं वक्तुम्, तदभावस्य हेतुलक्षणप्रस्तावे वक्ष्यमाणत्वात् । न होने से वक्तृत्व हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति घट नहीं सकती और व्याप्ति के विना वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञाभावरूप अपने साध्य की भी सिद्धि दूर है । [ विपक्षीभूत सर्वज्ञ से वक्तृत्व हेतु की निवृत्ति असिद्ध | यदि यह माना जाय कि 'सर्वज्ञ पुरुष की वक्ता के रूप में कभी उपलब्धि नही है अतः सर्वज्ञ के वक्तृत्व की निवृत्ति सिद्ध होती हैं' तो यह संगत नहीं है । कारण, 'किसी को भी सर्वज्ञ पुरुष की वक्ता के रूप में उपलब्धि नहीं है' ऐसा तो सम्भव ही नहीं है क्यों कि जो स्वयं सर्वज्ञ है वह अपने में वक्तृत्व की उपलब्धि कर ही लेगा अथवा अन्य सर्वज्ञ पुरुष सर्वज्ञान्तर व्यक्ति में वक्तृत्व का संवेदन कर लेगा, अतः 'किसी को भी सर्वज्ञनिष्ठ वक्तृत्व का उपलम्भ नहीं होता' असंभव है । यह कहना M यदि यह कहा जाय - "सर्वज्ञ कोई है ही नहीं इस लिये 'सर्वज्ञ को अपने में वक्तत्व की उपलब्धि होगी' इत्यादि कहना व्यर्थ होने से 'सर्व को सर्वज्ञ की अनुपलब्धि' का पूर्ण संभव है" तो यह भी ठीक नहीं, कारण - 'सर्वज्ञ नहीं है' यह कैसे सिद्ध हुआ ? यदि दूसरे किसी प्रमाण से तब तो उसी से उसका अभाव सिद्ध हो गया तो सर्वज्ञाभावसिद्धि के लिये अब वक्तृत्व की व्यावृत्ति का प्रदर्शन बेकार है । अगर कहें कि - "हमने जो अनुमान दिखाया है 'विवादास्पदव्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है क्यों कि वक्ता है" - इसी अनुमान से सर्वज्ञाभाव सिद्ध है" - तो इसमें स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष खडा है - आपके इस अनुमान से सर्वज्ञाभाव सिद्ध होने पर सर्वसम्बन्धि अनुपलम्भ के संभव बल पर वक्तृत्व हेतु की विपक्ष से व्यत्ति सिद्ध होगी और वह सिद्ध होने पर वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञाभाव सिद्ध होगा - इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष निर्विवाद है । कदाचित् उदार हो कर हम सर्वसम्बन्धी अनुपलब्धि को मान लेंगे तो भी समस्तपुरुषों की चित्तवृत्ति में क्या है यह विशेषतः जानने में असर्वज्ञ व्यक्ति समर्थ नहीं है। अतः सर्वसम्बन्धी सर्वज्ञानुपलब्धि की सिद्धि दूर है । इस प्रकार सर्वज्ञाभाव का विपक्षीभूत सर्वज्ञ से वक्तृत्व हेतु की निवृत्ति सिद्ध न होने से यह संदेह तो कम से कम होगा हो कि 'सर्वज्ञ में वक्तृत्व होता है या नहीं' । जब तक इस संदेह का निराकरण नहीं होगा तब तक वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञ का अभाव कैसे सिद्ध होगा ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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