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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः १९१ कि च, सर्वज्ञप्रतिपादकप्रमाणाभावे तस्याऽसिद्धत्वात तदभावसाधनायोपन्यस्यमानः सर्वोऽपि हेतुराश्रयासिद्ध इति न तस्मादभावसिद्धिः। अथ तद्ग्राहकत्वेन प्रमाणं प्रवर्तत इत्याश्रयाऽसिद्धत्वाभावस्तहि तत्साधकप्रमाणबाधितत्वात् पक्षस्य न तत्साधनाय हेतुप्रयोगसाफल्यमिति नानुमानावसेयः सर्वज्ञाभावः । अपौरुषेयत्वस्य प्राक्तनन्यायेनाऽसिद्धत्वात् सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्युपगमे शब्दस्य पुरुषदोषसंक्रान्त्याऽप्रामाण्यान्न ततोऽपि तदभावसिद्धिः। [ स्वकीय अनुपलम्भ से विपक्षव्यावृत्तिनिश्चय अशक्य ] __ केवल आपको 'सर्वज्ञपुरुष वक्ता नहीं होता' इस प्रकार की अनुपलब्धि हो जाय इतने मात्र से सर्वज्ञपुरुष से वक्तृत्व की निवृत्ति का निश्चय नहीं माना जा सकता क्योंकि आपको तो 'यह मेरे पिता है' इस व्यपदेश का निमित्त स्वजनकत्व भी उपलब्ध नहीं है फिर भी आपके पिता में से स्वजनकत्व की निवृत्ति को आप नहीं मानते हैं अतः केवल स्वकीय अनुपलब्धि व्यावृत्ति की व्यभिचारिणी है । जिस हेतु की विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो ऐसे हेतु से साध्यसिद्धि नहीं मानी जा सकती। फिर भी यदि वह मान ली जाय तव तो कोई भी पुरुष सर्वज्ञाभाव का ज्ञाता नहीं है क्योंकि वक्ता है जैसे शेरी में घुमता फिरता कोई पुरुष" इस प्रकार के अनुमान प्रयोग में वक्तृत्व हेतु की सर्वज्ञाभावज्ञाता रूप विपक्ष से व्यावृत्ति निश्चित न होने पर भी साध्यसिद्धि अनायास हो जायेगी, यानी सर्वज्ञाभाव के ज्ञान का अभाव सिद्ध हो जायगा। शंकाः-यदि प्रत्येक हेतु पर सर्वसम्बन्धी और आत्मसंबन्धी अनुपलब्धि के विकल्पों का प्रहार करते रहेंगे तो धूम हेतु की विपक्ष जलहृदादि में अनुपलब्धि पर भी विकल्पयुगल प्रयुक्त दोष समानरूप से सम्भव है-इसका कटु परिणाम यह होगा कि सभी अनुमान धराशायी हो जायेंगे। उत्तर:-यह शंका अनुचित है क्योंकि अन्यत्र धूमादिहेतुक अग्नि के अनुमान में तो विपक्षव्यावृत्तिनिर्णायक केवल अनुपलम्भ ही नहीं अपितु बाधकप्रमाण तर्कादि भी उपस्थित है । प्रस्तुत में, विपक्षीभूत सर्वज्ञ में वक्तृत्व का सद्भाव माना जाय तो उसमें कोई बाधक प्रमाण का सद्भाव आप नहीं कह सकते क्योंकि सर्वज्ञ में वक्तृत्वसंबन्ध का कोई प्रमाण बाधक नहीं है यह तो हम सर्वसाधक हेतु प्रयोग में आगे चल कर दिखायेंगे। [ सर्वज्ञाभावसाधक हेतु में आश्रयासिद्धि दोष ] यह भी सोचिये कि जब आपके मत में सर्वज्ञप्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं है तो वक्तृत्व हेतु का आश्रय पक्ष सर्वज्ञ स्वयं असिद्ध होने से उसके अभाव को सिद्ध करने के लिये जो कोई हेतु आप दिखायेंगे वह बेचारा आश्रयासिद्ध हो जायगा। यदि कहेंगे कि -सर्वज्ञ के ग्राहक रूप में प्रमाण की प्रवृत्ति होती है अतः हेतु का आश्रय सर्वज्ञ असिद्ध नहीं है-तब तो उसी सर्वज्ञताधकप्रमाण से आप का पक्ष यानी सर्धज्ञाभाव, बाधित होने से उसकी सिद्धि के लिये हेतु प्रयोग निष्फल है। सारांश, सर्वज्ञ का अभाव अनुमान से भी बुद्धिगम्य नहीं है। ___ शब्द से भी सर्वज्ञाभाव की सिद्धि दूर है। कारण, शब्दप्रामाण्यप्रयोजकरूप में आशंकित अपौरुषेयत्व की तो पूर्वोक्त न्याय से असिद्धि हो गयी है। अब यदि शब्दप्रतिपादक को सर्वज्ञ नहीं मानेंगे तो उन शब्दों में पुरुषदोषों का संक्रमण संभव होने से प्रामाण्य नहीं रहेगा तो उन अप्रामाणिक शब्दों से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि की आशा ही कहाँ ? ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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