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________________ १८८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अथ न प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकं किन्तु निवर्तमानम् । ननु यदि निखिलदेशकालाधारसकलपुरुषपरिषदाश्रितानन्तपदार्थसंविद्वयापकम् कारणं वा तव स्यात तदा तनिवर्तमानं तथाभूतं सर्वज्ञत्वं व्यावर्तयेद् नान्यथा, अतथाभूतनिवृत्तौ तन्निवृत्तेरसिद्धः तथाभ्युपगमे वा स एव सर्वज्ञ इति न तेन तनिषेधः । कि च, प्रत्यक्ष निवृत्तियदि प्रत्यक्षमेव तदा स एव दोषः । अथ प्रत्यक्षादन्या तदाऽसौ माणं वा? अप्रमाणवेनात: सर्वजाभावसिद्धिः। प्रमाणत्वे नानमानस्वम, सर्वात्मसंबन्धिन्यास्तनिवृत्तेर्यथासंख्य मसिद्धानकान्तिकत्वदोषद्वयसद्धावात् । न च तुच्छा तन्निवृत्तिस्तदभावज्ञापिका, तुच्छायाः केनचित् सह प्रतिबन्धाभावेन सर्वसामर्थ्य विरहेण च ज्ञापकत्वाऽसम्भवात् । तन्त्र प्रवर्तमान निवर्तमान वा प्रत्यक्षं तदभावं साधयति । यदि प्रथम विकल्प मानें कि कहीं भी कभी भी कोई भी सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति मानी जाय तब तो सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हुआ, बल्कि इस प्रकार के ज्ञान वाली व्यक्ति ही सर्वज्ञरूप में सिद्ध हई । कारण, सर्वदेश-कालवर्ती समग्र व्यक्तिओं में रही हुयी असर्वज्ञता का, सवेदेश-कालवर्ती समस्त पुरुषव्यक्ति का साक्षात्कार किये विना पता लगाना शक्य नहीं है । और वैसा साक्षात्कार किया जाय तब वह ज्ञानी पुरुष ही सर्वज्ञ क्यों नहीं होगा? दूसरी कल्पना - 'किसी जगह कोई एक काल में कोई कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा माना जाय तो इसमें किसी भी प्रकार सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता किन्तु 'अमुक व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है' इतना ही सिद्ध होता है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं है। [ निवर्तमान प्रत्यक्ष सर्वज्ञाभाव साधक नहीं है ] यदि नास्तिक कहेगा कि-'प्रत्यक्ष इसलिये सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहीं करता कि वह मर्वज्ञाभावरूप विषय में वृत्ति करता है, कितु सर्वज्ञ के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं अपितु निवृत्ति है अत: यह निवर्तमान प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध किया जाता है तो इस पर प्रतिवादी आशंका कार का कहना है कि निवृत्त होने वाला प्रत्यक्ष सर्वज्ञता की व्यावृत्ति यानी निषेध तभी कर सकता है जब अखिल देश-कालवर्ती समस्तपुरुष वर्ग के आश्रित अनन्त अनन्त पदार्थ संवेदन का वह निवर्तमान प्रत्यक्ष व्यापक होता अथवा तो कारण होता, अन्यथा नहीं। यदि निवर्तमान प्रत्यक्ष उक्त प्रकार के संवेदन का व्यापक या कारण नहीं होगा तो उससे सर्वज्ञता का निषेध नहीं हो सकेगा और यदि वह निवर्तमान प्रत्यक्ष उक्त प्रकार के संवेदन का व्यापक या कारण मानेंगे तब तो तथाभूत प्रत्यक्ष करने वाली व्यक्ति ही सर्वज्ञ बन जायेगी, अत एव सर्वज्ञ का निषेध नहीं हो सकेगा। यह भी सोचिये की वह सर्वज्ञनिषेध करने वाली प्रत्यक्षनिवति क्या है ? यदि प्रत्यक्षज्ञानात्मक है तब तो सर्वज्ञ अभाव प्रतिपादक प्रत्यक्ष पक्ष में जो दोष दिया गया है वही दोष लगेगा। यदि प्रत्यक्षभिन्नज्ञानरूप है तो उसको अप्रमाण मानेंगे या प्रमाण ? यदि अप्रमाण मानेगे तो सर्वज्ञाभाव सिद्धि को आशा मत करना । अगर प्रमाण मानेगे तो वह दोषयुगलग्रस्त होने से अनुमान प्रमाणरूप नहीं होगी क्योंकि-१. 'समस्त व्यक्ति को सर्वज्ञ का अनुमान नहीं होता' इस प्रकार की निवृत्ति असिद्ध है और २. केवल आत्मीय यानी आप को ही सर्वज्ञ साधक अनुमान नहीं होता अत: सर्वज्ञाभाव मानेगे तो अनेकान्तिक दोष लगेगा क्योंकि जिस विषय का आप को अनुमान नहीं होता उस वस्तु का भी सद्भाव तो प्रसिद्ध है। यदि उस निवृत्ति को तुच्छ मानेगे तो वह सर्वज्ञाभाव की बोधक नहीं होगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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