SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धि : १८७ न चागमेन सर्वज्ञस्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् । नरान्तरप्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम् ॥ [ दृष्टव्यं तत्त्व सं० ३१८५-८६, तथा श्लो. वा सू० २-११७/१८ ] ततो ये देश-काल.' इत्यदिप्रयोगे नाऽसिद्धो हेतः। सद्व्यवहारनिषेधश्च अनुपलम्भमात्रनिमित्तोऽनेकधानेनान्यत्र प्रवत्तित इति अत्रापि तन्निमित्तसद्भावात् प्रवर्तयितुयुक्तः ।। अथ यथाऽस्माकं तत्सद्धावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्ति-इति सद्वयवहारवदभावव्यवहारोऽपि न प्रवत्तितव्यः । तथाहि सर्वविदोऽभावः कि प्रत्यक्षसमधिगम्यः, प्रमाणान्तरगम्यो वा तत्र न तावत प्रत्यक्षसमधिगम्यः, यतः प्रत्यक्ष सर्वज्ञाभावाऽऽवेदकमभ्युपगम्यमानं कि 'सर्वत्र सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो न' इत्येवं प्रवर्तते ? उत 'क्वचित कदाचित कश्चित सर्वज्ञो नास्ति' इत्येवं ? इति कल्पनाद्वयम् । तत्र यदि 'सर्वत्र सर्वदा सर्वो सर्वज्ञो न' इति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिहि न सर्वज्ञाभाव', तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वात् । न हि सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण तदाधारमसर्वज्ञत्वमवगन्तु शक्यम् , तत्साक्षात्करणे च कथं न तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वम् ? इति नाद्यः पक्षः। द्वितीयेऽपि पक्षे न सर्वथा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति न प्रत्यक्षात सर्वज्ञाभावसिद्धिः । 'इस काल में हम लोगों को सर्वज्ञ का दर्शन नहीं होता है, अथवा उसका कोई एक देश (यानी अंश अथवा पक्षधर्म) भी नहीं दिखता जो लिग बनकर उसका अनुमान करावे । सर्वज्ञ का बोधक कोई नित्य आगम-विधिवाक्य भी नहीं है । वेदमन्त्रों में अर्थवादपरक वाक्यों का सर्वज्ञ में तात्पर्य ग्रह कल्पित यानी निश्चित नहीं है । तथा (अनित्य ) आगम से सर्वज्ञसिद्धि शक्य नहीं है क्योंकि वह आगम सर्वज्ञप्रणीत मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष है और अन्य असर्वज्ञपुरुषप्रणीत मानेंगे तो उसको प्रमाण कैसे माना जाय ?" अब तक किये गये परामर्श का निष्कर्ष यही है कि नास्तिक की ओर से जो यह अनुमान प्रयोग किया गया है-"जो देश-काल-स्वभाव से विप्रकृष्ट होते हुए सद्वस्तु के उप लम्भक प्रमाण के विषयभाव से अनापन्न पदार्थ होते हैं वे बुद्धिमानों के सद्व्यवहार मार्ग के राही नहीं होते' इत्यादि, इस प्रयोग में सद्-उपल-भकप्रमाणविषयभाव-अनापन्नता हेतु सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में असिद्ध नहीं है । तथा यह तो सुप्रसिद्ध है कि जिस वस्तु का उपल-भ नहीं होता उसके सद्रूप से व्यवहार का निषेध अन्यत्र अनेक बार किया गया है तो सर्वज्ञ के विषय में भी अनुपलम्भरूप निमित्त विद्यमान होने से सद्व्यवहार का निषेध उचित है । नास्तिक यहाँ प्रतिवादी की ओर से विस्तृत आशंका को उपस्थित करता है -प्रतिवादी आशंका करता है कि, हमारे पास जैसे सर्वज्ञ के सद्भाव का प्रदर्शक कोई प्रमाण नहीं है, तथैव आपके पास सर्वज्ञाभाव का प्रदर्शक भी कोई प्रमाण नहीं है तो जैसे सद्व्यवहारप्रवर्तन का आप निषेध करते हैं, उसी प्रकार अभावव्यवहारप्रवर्तन का भी निषेध करना चाहिये। जैसे कि सर्वज्ञ वा अभाव क्या प्रत्यक्षगम्य है या प्रत्यक्षान्यप्रमाणगम्य है ? प्रत्यक्ष से तो सर्वज्ञाभाव नहीं जाना जा सकता। कारण, यदि आप प्रत्यक्ष को सर्वज्ञाभाव बोधक मानेंगे तो उसके ऊपर दो प्रश्न कल्पना सावकाश है-१. क्या'कहीं भी कभी भी कोई भी सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार से प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है, २. या 'किसी जगह कोई एक काल में कोई कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार के प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy