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________________ १८६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ नाऽपि उपमानात तसिद्धिः, यत उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनं तदभ्युपगम्यते, न चोपमानभूतः कश्चित सर्वज्ञत्वेन प्रत्यक्षतः सिद्धो येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमुपमानात् साध्यते, सिद्धौ वा प्रत्यक्षत एव सर्वज्ञस्य सिद्धत्वान्नोपमानादपि तत्सिद्धिः।। सर्वज्ञसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषटकविज्ञातस्यार्थस्य कस्यचिदभावाद नार्थापत्तेरपि सर्वज्ञसत्त्वसिद्धिः। न चागमप्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानस्य तत्परिकल्पकत्वम् , अतीन्द्रिये स्वर्गाद्यर्थे तत्प्रणीतत्वनिश्चयमन्तरेण तस्य प्रामाण्याऽनिश्चयात् , अपौरुषेयत्वादपि तत्प्रामाण्यसम्भवात् कुतस्तस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानता? तन्नार्थापत्तितोऽपि तत्सिद्धिः । अभावास्यस्य तु प्रमाणस्याभावसाधकत्वेन व्यापाराद न तत्सद्धावसाधकत्वम् ।न चोपमानाऽर्थापत्त्यभावप्रमाणानां भवता प्रामाण्यमभ्युपगम्यत इति न तेभ्यस्तत्सिद्धिः । तदुक्तम् सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः। दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिंगं वा योऽनुमापयेत् ।। न चाऽऽगमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः । न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते ।। असर्वज्ञपुरुषप्रणीत है ? प्रथम विकल्प-सर्वज्ञबोधक आगम सर्वज्ञप्रणीत है यह पक्ष इतरेतराश्रय दोष होने के कारण अनुचित है । जैसे, सर्वज्ञप्रणीत होने पर वह आगम प्रमाणभूत होगा, और प्रमाणभूत होने पर उससे सर्वज्ञ का यथार्थ प्रतिपादन किया जायगा-इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष स्पष्ट ही है । २. असर्वज्ञप्रणीत अनित्य आगम वाक्य सर्वज्ञ के प्रतिपादन में समर्थ नहीं है क्योंकि वह उन्मत्त वाक्य तुल्य हो जाने से अप्रमाण है । निष्कर्षः- शब्द प्रमाग से सर्वज्ञसिद्धि अशक्य है । उपमानप्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि की आशा नहीं है । कारण, उपमानप्रमाण का विषय सादृश्य होता है और साश्य का भान उपमान और उपमेय दोनों को प्रत्यक्ष करने पर होता है, यहाँ कमनसीबी यह है कि ऐसा कोई सर्वज्ञपुरुष का दृष्टान्त प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है जिसके सादृश्य द्वारा अन्य किसी पुरुष में उपमानप्रमाण से सर्वज्ञता की सिद्धि की जा सके। तथा वैचित्र्य यह है कि यदि वैसा कोई सर्वज्ञपुरुष दृष्टान्त प्रत्यक्ष से सिद्ध होता तब तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सर्वज्ञ को सिद्धि हो जाने से, उपमान से सर्वज्ञ को सिद्धि मानना नितान्त व्यर्थ है। ___ अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। कारण, प्रत्यक्षादि छह प्रमाण से ऐसा कोई अर्थ ही प्रसिद्ध नहीं है जिसकी सर्वज्ञ का सत्त्व न मानने पर उपपत्ति न हो सके । आगम का प्रामाण्य यह कोई ऐसा अर्थ नहीं है जो सर्वज्ञ के विना उपपन्न न होने से सर्वज्ञ को कल्पना का प्रयोजक हो सके । कारण यह है कि जब तक उस आगम में सर्वज्ञप्रतिपादितत्व का निश्चय संभवबाह्य है तब तक अतीन्द्रिय स्वर्गादि अर्थ के स्वीकार में वह आगम प्रमाण ही नहीं है। उपरांत, आगम का प्रामाण्य [ मीमांसकमतानुसार ] अपौरुषेयताप्रयुक्त भी होने का संभव है, अतः सर्वज्ञ के विना आगम के प्रामाण्य को अनुपपत्ति कैसे कही जाय ? तात्पर्य, अर्थापत्ति सर्वज्ञसद्भाव की साधक नहीं हो सकती। अभावप्रमाण से भी सर्वज्ञसिद्धि दुःशक्य है क्योंकि वह अभाव का साधक है, किसी के सद्भाव का साधक नहीं है। दूसरी बात यह है कि उपमान-अर्थापत्ति और अभावप्रमाण को आप (जैन विद्वान्) प्रमाण ही नहीं मानते हैं, अतः उन से सर्वज्ञ की सिद्धि संभव नहीं है । श्लोकवात्तिक और तत्त्वसंग्रह आदि में कहा भी है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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