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________________ प्रथमखण्ड का ० १ सर्वज्ञ सिद्धि: नाऽपि शब्दात् यतः शब्दोऽपि तत्प्रतिपादकोऽभ्युपगम्यमानः किं नित्यः उताऽनित्यः ? इति कल्पनाद्वयम् । न तावद् नित्यः, सर्वज्ञबोधकस्य नित्यस्यागमस्याभावात् भावेऽपि तत्प्रतिपादकत्वेन तस्य प्रामाण्यासम्भवात् कार्येऽर्थे तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् । अथाऽनित्यस्तत्प्रतिपादक इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽनित्योऽपि किं तत्प्रणीतः स तदवबोधकः, अथ पुरुषान्तरप्रणीत इति विकल्पद्वयम् । तत्र न सर्वज्ञप्रणोतः स तदवबोधक इति पक्षो युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् । तथाहितत्प्रणीतत्वे तस्य प्रामाण्यम्, ततः तस्य तत्प्रतिपादकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । नाऽपि पुरुषान्तरप्रणीतस्तदवबोधकः, तस्योन्मत्तवाक्यवदप्रमाणत्वात् । तन्न शब्दादपि तस्य सिद्धिः । अगर प्रथम विकल्प का ग्रहण किया जाय तो वह अयुक्त है, कारण, जिन पदार्थों के बारे में विवाद हैं ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थों में सकलज्ञेयव्यापक प्रमाण का प्रमेयत्व कहीं भी सिद्ध नहीं है । कदाचित् किसी प्रकार वह सिद्ध है तब तो साध्यसिद्धि उपरोक्त प्रकार के हेतु की सिद्धि में ही अन्तर्भूत हो जाने से सर्वज्ञसिद्धि के लिये हेतु का प्रयोग व्यर्थ है । दूसरी बात यह है कि अग्नि आदि रूप दृष्टान्त में सकलज्ञेयव्यापक प्रमाणप्रमेयत्वरूप हेतु सिद्ध न होने से साध्य के साथ हेतु की अन्वयव्याप्ति भी संदिग्ध बन जाती है । १८५ दूसरे विकल्प में, हम आदि के प्रमाणज्ञान का प्रमेयत्व हेतु बनाया जाय तो हेतु की असिद्धि हो जायेगी, क्योंकि विवादास्पद अतीन्द्रियपदार्थों में हमारे प्रमाणज्ञान का विषयत्वरूप प्रमेयत्व कभी भ सिद्ध नहीं है । अगर वह सिद्ध होता, तब तो अतीन्द्रियपदार्थों में तथाप्रकार के प्रत्यक्षत्व की जो साध्यरूप अभिमत है, अनायास सिद्धि हो जाने से विवाद ही समाप्त हो जाता है, अब हेतु का प्रयोग करना निष्फल 1 तीसरे विकल्प में, अतीन्द्रियार्थग्राहिप्रमाणप्रमेयत्व और ऐन्द्रियकार्थग्राहिप्रमाणप्रमेयत्व एतदुभयसाधारण सामान्यप्रमेयत्व को हेतु बनाया जाय तो यह पक्ष भी असंगत है क्योंकि अतीन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्व और इन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्व ये दोनों व्यक्ति अत्यन्त विलक्षण है इसलिये तदुभय साधारण प्रमेयत्वसामान्य का कोई संभव नहीं है । शबल वर्ण धेनु और श्यामवर्ण धेनु में गोत्व सामान्य हो सकता है किन्तु अत्यन्तविलक्षण शबलवर्ण धनु और श्वेतअश्व में साधारण हो ऐसा कोई सामान्य धर्म उपलब्ध नहीं है । अतः तीसरे विकल्प में प्रयुक्त प्रमेयत्वसामान्य हेतु असिद्ध होने से इस निष्कर्ष पर आना पडेंगा कि अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं की जा सकती । [ शब्दप्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि अशक्य ] सर्वसिद्धि के लिये शब्द भी प्रमाण नहीं है । सर्वज्ञ की सिद्धि का संपादक जिस शब्द को माना जायेगा उसके उपर दो कल्पना सावकाश है कि वह शब्द नित्य होगा या अनित्य ? नित्य शब्द से सर्वज्ञसिद्धि की आशा व्यर्थ है, कारण, सर्वज्ञ साधक कोई भी नित्य आगम प्रसिद्ध नहीं है । कदाचित् किसी के मत में सर्वज्ञ का प्रतिपादक नित्य आगम प्रसिद्ध हो तो भी उस आगम में प्रामाण्य असंभवित है । कारण, उस मत में यह व्यवस्था की गयी है कि नित्य आगमवाक्य कार्य यानी प्रयत्नसाध्य स्वर्गादि साधनभूत यज्ञादि अर्थ में ही प्रमाण है किन्तु सिद्ध नदी-पर्वत आदि अर्थ में प्रमाण नहीं है । अनित्य आगम सर्वज्ञ का प्रतिपादक हो यह पक्ष माना जाय तो वह भी युक्तिसंगत नहीं है । कारण, यहां भी दो विकल्प सावकाश हैं- १. वह सर्वज्ञबोधक अनित्य आगम सर्वज्ञप्रणीत है या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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