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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
व्यावृत्तमस्मर्यमाणकर्तृकत्वमपौरुषोयत्वेन व्याप्यत इति नानकान्तिकत्वम् । न, परकीयस्य कर्तु: स्मरणस्य भवता प्रमाणत्वेनाऽनभ्युपगमात , अभ्युपगमे वा परदेऽपि कर्तुः स्मरणात 'स्मर्यमाणकर्तृ कत्वाव इति प्रतिवाद्यसिद्धो भवन् भवतोऽप्यसिद्धः स्यात् ।
अथ वेदे सविगानं कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तः कर्तृ स्मरणमसत्यम् । तथाहि-केचिद् हिरण्यगर्भम् , अपरेऽष्टकादीन् वेदस्य कर्तन स्मरन्तीति कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तिः। नन्वेवं कर्ट विशेषविप्रतिपत्तेस्तद्विशेषस्मरणमेवाऽसत्यं स्यात्तत्र, न कर्तृमात्रस्मरणम् । अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृ विशेषविप्रतिपत्त : कर्तृ मात्रस्मरणस्याऽसत्यत्वेन तत्राप्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य सद्भावात पुनरप्यनैकान्तिकत्व प्रकृतहेतोः । अत: अपौरुषेयत्वसाधक अनुमान में जो दोष दिखाये जायेंगे उन से ही यह दूसरा विकल्प भी दूषित हो जाता है।
[ कर्ता का अस्मरण अनुमानप्रमाणरूप नहीं हो सकता ] [३] अनुमान प्रमाण भी असंगत है। 'वेद अपौरुषेय है क्योंकि उसके कर्ता रूप में किसी का स्मरण नहीं है।' ऐसे अनुमान प्रयोग में हेतु और साध्य का वैयधिकरण्य दोष है, अपौषेयत्व का पक्ष वेद है, उसमें स्मरणाभाव हेतु न रहकर वह तो आत्मा में रहता है। अनुमान में हेतु-साध्य का सामानाधिकरण्य आपके मत में अवश्य होना चाहिये। जिसके कर्ता का स्मरण नहीं है ऐसा होने से इस प्रकार परिष्कार युक्त हेतु का प्रयोग करने पर अब तो यह हेतु वेदरूप पक्ष में ही होने ने यद्यपि वैयधिक रण्य दोष नहीं होगा किंतु महाभारतादि जो कि निश्चितरूप से सकर्तृक है. फिर भी उसके कर्ता का स्मरण न होने से-उसमें भी वह हेतु रह जायेगा, तो वहां अपौरुषेयत्वरूप साध्य न होने से व्यभिचार दोष होगा।
___ अपौरुषेयवादी:-अन्य बौद्धादि आगम [ अथवा महाभारत आदि में ] कर्ता का अस्मरण नहीं है किन्तु स्मरण ही है इसलिये विपक्षीभूत आगम से निवृत्तिमान 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' हेतु की अपौरुषेयत्व के साथ ही व्याप्ति सिद्ध हो जाती है । अब अनैकान्ति क दोष नहीं रहेगा।
उत्तरपक्षी:-अन्य आगमों में अन्य दार्शनिकों को कर्ता का स्मरण होने पर भी आप उनका प्रमाण तो मानते नहीं है, इसलिये आपकी अपेक्षा तो वहां अस्मर्यमाण कर्तृत्व रह जाने से यह हेतु व्यभिचारी होगा ही। यदि आप अन्य दार्शनिकों के मत को प्रमाण मान लेते हैं तब तो वेद में भी उन लोगों को कर्ता का स्मरण होने से प्रतिवादीओं के लिये आपका हेतु वेदरूप पक्ष में स्वरूपासिद्ध होने पर आपके लिये भी स्वरूपासिद्ध ही होगा क्योंकि आप उनको प्रमाण मानते हैं।
[वेद में कत सामान्य का स्मरण निर्वाध है ] अपौरुषेयवादी:-वेद के क विशेष के विषय में विविध मतभेद होने से कर्ता का स्परण विवादग्रस्त है इसलिये वह मिथ्या है । जैसे-कोई कहते हैं कि वेद का कत्ती हिरण्यगर्भ है, कोई कहते हैं कि अष्टकादि ऋषीओं ने वेद बनाये हैं। इस प्रकार कस्मिरण विवादग्रस्त है ।
उत्तरपक्षी:-क विशेष विवादग्रस्त है तब क विशेष के स्मरण को ही असत्य कहना चाहिये किन्तु सामान्यतः क रण [ = कोई न कोई उसका कर्ता तो जरूर है ] को असत्य नहीं कह सकते । यदि उसको भी असत्य कह देंगे तब तो कादम्बरी आदि ग्रन्थ के कर्ताविशेष में भी
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