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प्रथमखण्ड का १ - वेदापौरुषेयविमर्शः
निश्चाययति । तदसत् 'न पूर्व बाघकमत्र प्रवृत्तम्, नाप्युत्तरकालं प्रवत्तिष्यते' इत्येवंभूतस्य ज्ञानस्याsaग्दृशामभावात् भावे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वाद् न " प्रेरणैव धर्मे प्रमाणम्" इत्यन्ययोगव्यवच्छेदेन तद्विषयतत्प्रामाण्यावधारणोपपत्तिः स्यात् - किंतु निश्चित स्वसाध्याविनाभूतलंगप्रभवत्वम् । स्वसाध्याविनाभावनिश्चायकं च प्रकृतस्य हेतोः पौरुषेयत्वेन कार्यकारणभावनिश्वायकम्, तदेव च स्वसाध्यविपर्यये तस्य सद्भावबाधकम्, तस्य च प्रकृते हेतौ सत्त्वेन दर्शितत्वाद् न तत्प्रभवस्यानुमानस्याऽप्रामाण्यम् ! b अत एव स्वसाध्याविनाभावित्वाभावेन तस्याप्रामाण्यमिति द्वितीयोऽपि पक्षो न युक्तः । तन्नाभावाख्यं कर्त्रस्मरणलक्षणं प्रमाणमपौरुषेयत्वसाधकम् नापि पौरुषेयत्वबाधकम् ।
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अथार्थापत्तिः कर्त्रस्मरणम्, तदप्यसंगतम्, अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्, तदूषणैश्वास्य पक्षस्य दूषितत्वात् ।
अथानुमानम् तदप्यसंगतम्, 'अपौरुषेयो वेदः कर्त्रस्मरणाद्' इत्येवं प्रयोगे हेतोर्व्यधिकरणत्वदोषात् । श्रथ 'अस्मर्यमाणकर्तृ कत्वाद्' इति हेतुप्रयोगान्न व्यधिकरणत्वदोषस्तहि "अस्मर्यमाणकर्तृ कत्वं भारतादिषु निश्चित केष्वपि विद्यते इत्यनैकान्तिकत्वम् । प्रथागमान्तरे परैः कर्तुः स्मरणात् ततो
शक्य नहीं है, क्योंकि यह बाधकाभावज्ञान किस काल में बाधकाभाव का निश्चय करायेगा ? अनुमान काल में ही यदि वह तथाभूत निश्चय करायेगा तो इससे वह प्रामाण्य संपादक नहीं हो जायेगा, क्योंकि बाधकों का संभव रहने पर भी अनुमानकाल में बाधकाभाव ज्ञान हो सकता है-इससे अनुमान को प्रमाण कैसे मान लिया जाय ? यह कहना - ' बाधकाभाव ज्ञान सर्व काल बाधकाभाव का निश्चय करता ही रहेगा' - सत्य नहीं है, क्योंकि 'पहले यहाँ कभी भी बाधक विद्यमान नहीं था, और भावि उत्तरकाल में नहीं होगा' ऐसा ज्ञान वर्त्तमानदृष्टि वाले को हो नहीं सकता। यदि हो सकता है तब तो जिसको वह हुआ वही सर्वज्ञ बन गया, तब फिर आपने जो भार देकर यह कहा है( अर्थात् ) अतीन्द्रिय धर्म विषय में प्रेरणा से अन्य प्रमाण के योग का व्यवच्छेद करते हुये 'प्रेरणा ही धर्म में प्रमाण है' इस प्रकार भार देकर प्रेरणा के धर्मविषयक प्रामाण्य का प्रतिपादन किया है वह नहीं घटेगा । इस प्रकार अबाधितत्व को प्रामाण्यसंपादक नहीं माना जा सकता किंतु- 'अपने साध्य के साथ जिसका अविनाभाव सुनिश्चित है ऐसे लिंग से अनुमान की उत्पत्ति' यही अनुमान प्रामाण्य का मूल है । हमारे प्रस्तुतानुमान में पौरुषेयत्व हेतु का अपने साध्य नररचित रचनाऽविशिष्टत्व के साथ अविनाभावनिश्चायक प्रसिद्ध है: जैसे - मनुष्य और मनुष्यरचित कार्य के समान कार्य- इनके बीच कारणकार्य भाव का निश्चायक जो अन्वयव्यतिरेक हैं वही हेतु में साध्य-अविनाभाव के भी निश्चायक हैं । तथा इसी अन्वयव्यतिरेक का निश्चय पौरुषेयत्वरूप साध्य न होने पर आकाशादि में नररचित रचनाऽविशिष्टत्व के सद्भाव का बाधक भी है । यह बाधक हमारे हेतु में भी ( व्यभिचार शंका के निवारणार्थ ) विद्यमान है इसलिये ऐसे अन्वयव्यतिरेकावलम्बित स्वसाध्याविनाभावित्व निश्चय विशिष्ट लिंग से उत्पन्न हमारा अनुमान अप्रमाण नहीं हो सकता । अतः b अपने साध्य के साथ अविनाभाव न होने से कर्त्ता के अस्मरण रूप अभाव प्रमाण से हमारे अनुमान का अप्रामाण्य दिखाने वाला द्वितीय पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है । निष्कर्ष यह कि कर्त्ता का अस्मरण रूप अभाव प्रमाण न तो अपौरुषेयत्व का साधक है, न पौरुषेयत्व का बाधक है ।
[२] कर्त्ता का अस्मरण अर्थापत्ति प्रमाण है और उससे वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध होता है- यह दूसरा विकल्प भी असंगत है । कारण, अनुमान में अर्थापत्ति का अन्तर्भाव हम आगे बतायेंगे
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