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________________ प्रथमखण्ड-का० १ - वेदपौरुषेयविमर्शः श्रथ वेदे कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तिवत् कर्तृ मात्रेऽपि विप्रतिपत्तिरिति तत्र कर्तृ स्मरणमसत्यम्, कादम्बर्यादीनां तु कर्तृ विशेष एव विप्रतिपत्तिर्न कर्तृ मात्रे, तेन तत्र कर्तु : स्मरणस्य विरुद्धस्य सत्यत्वाद् नास्मर्यमाणकर्तृ कत्वं तेषु वर्त्तत इति नानैकान्तिकत्वम् । ननु 'वेदे सौगताः कर्तृ मात्रं स्मरन्ति न मीमांसकाः' इत्येवं कर्तृमात्रेऽपि विप्रतिपत्तेर्यदि कर्तृ स्मरणं मिथ्या तदा कर्तृ स्मरणवद् अस्मर्यमाणकर्तृत्वमप्यसत्यं स्यात् विप्रतिपत्तेरविशेषात्, तथा च पुनरप्यसिद्धो हेतुः । एतेन 'सत्यम्, वेदे कर्तृ स्मरणमस्ति न त्वfवगीतं यथा भारतादिषु' इति निरस्तम् । . १७५ यदप्युक्तम् - " तथा छिन्नमूलं च वेदे कर्तृस्मरणम् । तस्यानुभवो मूलम्, न चाऽसौ तत्र तद्विषयत्वेन विद्यते' इति, तदप्यसंगतम्, यतः किं प्रत्यक्षेण तदनुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलत्वम्, उत प्रमाणान्तरेण ? तत्र यदि प्रत्यक्षेणेति पक्षः, तदा वक्तव्यम् किं भवत्सम्बन्धिना प्रत्यक्षेण तत्र तदतुभवाभावः ? उत सर्वसम्बन्धिना तत्र तदनुभवाभावः ? यदि भवत्सम्बन्धिना, तदाऽऽगमान्तरेऽपि तत्कर्तृ ग्राहकत्वेन भवत्प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तं स्तत्कर्तृ स्मरणस्य छिन्नमूलत्वेनास्मर्यमाणकर्तृ कत्वस्य भावाकान्तिकः पुनरपि हेतुः । श्रथ सर्वसम्बन्धिना प्रत्यक्षेणाननुभवः, प्रसावसिद्ध:, न ह्यग्दृशा 'सर्वेषामंत्र ग्राहकत्वेन प्रत्यक्षं न प्रवृत्तिमत्' इति निश्चेतु ं शक्यमिति तत्र तत्स्मरणस्य छिन्नमूलत्वाऽसिद्धेः 'स्मर्यमाणकर्तृकत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः । विवाद संभव होने से उसके भी सामान्यतः कर्त्तास्मरण को मिथ्या कहना होगा और प्रस्तुत हेतु 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' अब कादम्बरी में भी रह जाने से फिर से एकबार व्यभिचारी हो जायेगा क्योंकि कादम्बरी आदि में आप अपौरुषेयत्व नहीं मानते । [ वेदकर्तृ स्मरण मिथ्या होने पर कर्तृ - अस्मरण भी मिथ्या होगा | अपौरुषेयवादी:- वेद में कर्तृ विशेष के लिये जैसा विवाद है, कर्तृ सामान्य के लिये भी वैसा ही विवाद है, अतः वेद के कर्त्ता का स्मरण असत्य होना चाहिये । कादम्बरी आदि के विशिष्ट कर्त्ता में विवाद होने पर भी सामान्यतः कर्त्तामात्र मे कोई विवाद नहीं है क्योंकि उसमें तो हमारे सहित सब वादीगण कर्त्ता को मानते ही हैं । इस प्रकार कादम्बरी में अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व का विरोधी कर्तास्मरण ही सत्य होने से उसका विरोध्य अस्मर्यमाणकर्तृ कत्वरूप हेतु विपक्षीभूत कादम्बरी में नहीं रहेगा तो अनैकान्तिक दोष भी नहीं रहेगा । Jain Educationa International उत्तरपक्षी :- अहो ! आपने 'वेद में बौद्धों को कर्त्तास्मरण है किन्तु मीमांसकों को नहीं है, ऐसे विवाद से कर्त्तास्मरण को यदि मिथ्या माना तो कर्त्ता अस्मरण भी मिथ्या ही मानना चाहिये क्योंकि विवाद तो एक दूसरे के प्रति तुल्य है । कर्त्ता - अस्मरण इस प्रकार मिथ्या होने पर फिर से एक बार अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु स्वरूपाऽसिद्ध हुआ, क्योंकि वेद में भी वह नहीं रहा । इससे यह प्रलाप भी खंडित हो जाता है जो आपने कहा था कि- "वेद में कर्त्ता का स्मरण है यह बात सच है, किन्तु वह निर्विवाद नहीं है जैसे भारतादि में वह निर्विवाद है" इत्यादि ... l [ कतु स्मरण की छिन्नमूलता का कथन असत्य ] यह जो आपने कहा था- 'वेद के कर्त्ता का स्मरण छिन्नमूल है । स्मरण का मूल अनुभव होता है, वेदकर्ताको विषय करने वाला कोई अनुभव नहीं है'' इत्यादि वह भी असंगत है। आप A कर्ता For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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