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प्रथमखण्ड-का०१-शब्दनित्यत्व०
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पौरुषेयेषु प्रासादादिषु नररचितरचनाऽविशिष्टत्वदर्शनादपौरुषेयेष्वाकाशादिष्वदर्शनाच्च नानकान्तिकः । अथाऽपौरुषेयेष्वदृष्टमपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वं तत्र विरोधाभावादाशंक्यमानं संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिकम् । न, अपौरुषेयेष्वपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वस्य भावे पौरुषेयत्वेन निश्चितेष प्रासादादिष सकृदपि तस्य सद्भावो न स्यात, अन्यहेतु कस्य ततः कदाचिदप्यभावात्, भावे वा तद्धेतुक एवाऽसाविति नाऽपौरुषे तस्य सद्भावः शंकनीयः।
अत एव न विरुद्धः । पक्षधर्मत्वे सति विपक्ष एव वृत्तिर्यस्य स विरुद्धः, न चास्य विपक्ष वृत्तिरिति प्रतिपादितम् । नापि १. कालात्ययापदिष्ट-२. प्रकरणसमा- ३. ऽप्रयोजकत्वानि हेतादाषा: विद्यमानता से पौरुषेयत्व का निराकरण हो जाय। हम अविशिष्टत्व-यानी विशेषाभाव इस लिये कहते हैं कि जिस प्रकार के विशेष की उपलब्धि होने पर पौरुषेयत्व का निराकरण हो जाय इस प्रकार के विशेष का अभाव है। सर्वथा अविशिष्टता तो किसी में भी नहीं होती है । आपने जो अप्रामाण्य के अभाव को विशेषरूप में उपन्यस्त किया वह तो अप्रामाण्य के हेतुभूत सदोष पुरुष के निराकरण में सशक्त है किन्तु अप्रामाण्य के निवर्तक गुणवान पुरुष का निराकरण नहीं हो सकता।
अपौरुषेयवादी:-पुरुष कोई भी गुणवान हो नहीं सकता इसलिये गुणवान् पुरुष की स्वतः निवृत्ति होती है, दोषवान् पुरुष पूर्वोक्त अप्रामाण्याभाव विशेष से निवृत्त होता है तो वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध हो गया।
उत्तरपक्षी:- ऐसा आप मत मानीये, क्योंकि अपौरुषेयत्व का तो निराकरण हो गया है । यदि वेदकर्ता गुणवान् पुरुष नहीं मानेंगे तो वेद में अप्रामाण्याभावरूप विशेष भी नहीं रह सकेगा। उससे अन्य ऐसा कोई विशेष नहीं है जिससे गुणी पुरुष की भी निवृत्ति हो। अत: पुरुषमात्रनिवर्तक कोई विशेष न होने से 'मनुष्य रचित कृति से अविशिष्टता यानी तुल्यता' यह हेतु असिद्ध नहीं है ।
[अनैकान्तिक दोष उत्तरपक्षी के हेतु में नहीं है ] 'नररचितरचना अविशिष्टता' इस हेतु में अनैकान्तिकदोष भी नहीं है क्योंकि पुरुषरचित महल आदि सपक्ष में हेतु दृश्यमान है एवं पुरुष-अरचित आकाशादि विपक्ष में वह अदृश्यमान है।
अपौरुषेयवादी:-अपौरुषेय आकाशादि में नररचितरचनाऽविशिष्टत्व हेतु का दर्शन भले न हो किन्तु उसकी वहाँ विद्यमानता की संभावना में कोई बाधक-विरोधी नहीं है इसलिये 'शायद वह हेतु वहाँ भी होगा' इस प्रकार की शंका से विपक्ष में हेतु की व्यावृत्ति = अभाव शंकित हो जाने से संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिरूप अनैकान्तिक दोष लग जायेगा।
उत्तरपक्षः-वह नहीं लग सकता । कारण, अपौरुषेय आकाशादि में यदि नररचितरचनाऽविशिष्टत्व हेतु विद्यमान होगा तो पौरुषेयरूप में निश्चित प्रासादादि में कहीं भी नररचितरचनाऽविशिप्टत्व का सद्भाव नहीं होगा, क्योंकि पौरुषेय का अर्थ है पुरुषहेतुक, यदि नररचित रचनाऽविशिष्टत्व पुरुषहेतुक नहीं होता यानी पुरुषान्य हेतुक होता तो उसका सद्भाव कभी भी पुरुषात्मक हेतु से नहीं हो सकता । यदि नररचितरचनाऽविशिष्टत्व अपौरुषेय में रह जावे तो अपौरुषेय प्रासादादि में भी रहेगा तो प्रासादि पुरुषान्यहेतुक हो जाने से उसमें पौरुषेयत्व का सद्भाव कैसे होगा? यदि वहाँ उसका सद्भाव मानना है तब तो सिद्ध हुआ कि पुरुषकृत प्रासादादि में ही नररचित रचनाऽविशिष्टत्व रह सकता है अपौरुषेय में कदापि नहीं, इसलिये विपक्ष अपौरुषेय में हेतु की शंका नहीं करनी चाहिये।
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