SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अतः पौरुषेयत्वनुमानादवसीयते । तथा हि- ये नररचित रचनाऽविशिष्टाः ते पौरुषेयाः यथाऽभिनवकप-प्रसादादि रचनाऽविशिष्टा जीर्णकप-प्रासादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टं न वैदिक वचन मिति प्रयोगः । न चात्राऽऽश्रयासिद्धो हेतुः, वैदिकीनां रचनानां प्रत्यक्षतः उपलब्धः । नाप्यप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः, अभिनवकपप्रासादादिषु पुरुषपूर्वकत्वेऽस्य साध्यधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य सिद्धत्वात् । न च हेतोः स्वरूपाऽसिद्धत्वस्, वैदिकोषु वचनरचनासु विशेषग्राहकप्रामाणामावेन तस्याऽभावात । न चाऽप्रामाण्याभावलक्षणो विशेषस्तत्र इति शक्यमभिधातुम, तथाभूतस्य विशेषस्य विद्यमानस्थापि पौरुषेयत्वाऽनिराकरणत्वात् । यादृशो हि विशेष उपलभ्यमानः पोरुषत्वं निराकरोति तादृश. स्य विशेषस्याऽभावादविशिष्टत्वमच्यते, न पुनः सर्वथा विशेषाभावात, एकान्तेनाऽविशिष्टस्य कस्यचिदभावात् । अप्रामाण्याभावलक्षणश्च विशेषो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुष निराकरोति, न च गुणवन्तमप्रामाण्यनिवर्तकम् । न च गुणवतः पुरुष स्थाभावात अन्यस्य च तेन विशेषेण निवत्तितत्वात् सिद्धमेवाऽपौरुषेयत्वं वेदे इत्यभ्युपगमनीयम्, अपौरुषेयत्वस्य निर कृतत्वाद, गुणवत्पुरुषाभावेऽप्रामाण्याभावलक्षणस्य विशेषस्याभावप्रसंगात नाऽसिद्धो नर रचितवचनरचनाऽविशिष्टत्वलक्षणो हेतुः। पापारावत, कारण वैदिक शब्दों को अपौरुषेय समझा जाय और लौकिक शब्दों को पौरुषेय समझा जाय ? संकेत के अनुसार अर्थ का प्रतिपादन तो दोनों प्रकार में तल्य है। यदि वेद नित्य हो तो उसके संकेत को नित्य मानने की अपेक्षा पुरुषेच्छा रूप अनित्य संकेत द्वारा अर्थ का प्रतिपादन मानना यक्त नहीं किंतु जिस शब्द में जिस अर्थ का पुरुषों ने संकेत किया है उस अर्थ को विसंवाद विना प्रतिपादन करने वाले ही शब्द उपलब्ध होते हैं इससे शब्द को भी अनित्य ही मानना चाहिये । यदि पुरुष कृत संकेतों को न माना जाय तो वैदिक शब्दों में भिन्न-भिन्न संकेत अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ की प्रतिपादकता की कल्पना निरर्थक हो जायेगी। [ अनुमान से वेद में पौरुषेयत्व सिद्धि ] इस अनुमान से भी वेद की पौरुषेयता ज्ञात होती है। जैसे-"जो पदार्थ मनुप्य रचित कृतिओं से भिन्न नहीं होते वे पुरुषरचित होते हैं, जैसे कि पुराने कुवा और महल आदि अभिनव निष्पन्न कुवामहल आदि से भिन्न नहीं है तो वे पुरुषरचित ही होते हैं। वैदिक वाक्य भी मनुष्यरचित कृति से भिन्न है अतः पौरुषेय सिद्ध होते हैं।" इस प्रयोग में हेतु के आश्रय की असिद्धि नहीं है क्योंकि वैदिक वाक्यरचना अभी भी प्रत्यक्षतः उपलब्ध हैं । पक्ष का विशेषण यानी साध्यरूप से अभिमत धर्म भी अप्रसिद्ध नहीं है । कारण, नूतननिर्मित कुवा-महलादि पुरुष प्रयत्न पूर्वक होने से साध्यधर्म पौरुषेयत्व रूप विशेषण जगदविदित है । पक्ष में हेतु की स्वरूपतः असिद्धि भी नहीं है क्योंकि-'पक्षभूत वैदिक वाक्य रचना में मनुप्यरचितकृति साम्य नहीं है और वह केवल जीर्णकूपादि में या बौद्धादि आगल में ही है' इस प्रकार के भेद का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है इसलिये स्वरूपासिद्धत्वदूषण का अभाव है। [ अप्रामाण्याभावरूप विशेषता अकिंचित्कर है ] अपौरुषेयवादी:-वेद रचना में यह विशेषता है कि वेद में अप्रामाप्य का अंश भी नहीं है । उत्तरपक्षी:-ऐसा कहना सरल नहीं है क्योंकि यह कोई ऐसी विणेपता नहीं है कि जिसकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy