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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० १६५ अथ वर्णानामपौरुषेयत्वमङ्गीक्रियते, तदप्यसंगतम्, “य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकाः" इत्यभिधानात् वेदवल्लोकायतशास्त्रमपि प्रमाणं स्यादिति तदर्थानुष्ठानं भवतः प्रसज्यते । लौकिके च वाक्ये यो विसंवादः क्वचिदुपलभ्यते स भवन्नीत्या न प्राप्नोति । अथ लौकिक-वैदिकशब्दयोर्भेदोऽभ्युपगम्यते, तथा (? तदा) रागादिसमन्वितत्वाभ्युपगमात सर्वपुरुषाणां न तेषां यथावस्थितवेदार्थपरिज्ञानम्, स्वयं वेदोऽपि न भवतां वेदार्थ प्रतिपादयति, नाऽपि वेदार्थप्रतिपादकमपौरुषेयं वेदव्याख्यानमवगतार्थ सिद्धं येन ततो वेदार्थप्रतिपत्तिः, लौकिकशब्दानुसारेण वेदशब्दार्थप्रकल्पनमपि तद्भेदाभ्यु. पगमेऽनुपपन्नमिति न वेदार्थप्रसिद्धिः स्यादिति न वैदिक-लौकिकशब्दयोर्भेदाभ्युपगमः श्रेयानिति लौकिकवद् वैदिकस्यापि पौरुषेयत्वमभ्युपगन्तव्यम् । न च लौकिक-वैदिकशब्दयोः शब्दस्वरूपाऽविशेषे, संकेतग्रहण[स]व्यपेक्षत्वेनार्थप्रतिपादकत्वे, अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषणाश्रवणे सम्यते [ ? समाने]ऽपरो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपौरुषेयाः लौकिकाः पौरुषेयाः स्युः । तथा, नियोगे ? यथानियोगं] चार्थप्रत्यायनमुभयोरपि । न च नित्यत्वे पुरुषेच्छावशादर्थप्रतिपादकत्वं युक्त, उपलभ्यन्ते च यत्र पुरुषैः संकेतितास्तमर्थमविगानेन प्रतिपादयन्तः, अन्यथा नियोगाद्यर्थभेदपरिकल्पनमसारं स्यात् । [ वर्ण नित्य-अपौरुषेय होने पर लोकायतशास्त्रप्रामाण्य आपत्ति ] A यदि वर्गों को अपौरुषेय ( नित्य ) स्वीकार करते हैं तो वह भी असंगत है क्योंकि यह कहा जाता है कि "जो लौकिक शब्द हैं वे ही वैदिक शब्द हैं" तो यदि वेद की तरह लोकायत= नास्तिक के शास्त्र को भी आप नित्य अपौरुषेय मानेंगे तो उसमें कहे गये अर्थ का अनुष्ठान भी आप का कर्तव्य होगा। तथा लौकिक वाक्य भी अपौरुषेय बन जाने से उनमें जो विसंवाद कहीं पर दिखता है वह भी आप की नीति अनुसार प्राप्त नहीं होगा। [यानी किसी भी प्रकार उसकी उपपत्ति ही करनी होगी।] ___ यदि ऐसा भेद करें कि वैदिक वाक्य अपौरुषेय हैं और लौकिक वाक्य पौरुषेय हैं तो किसी भी पुरुष को वेद के सही अर्थ का पता नहीं लगेगा क्योंकि सभी पुरुष राग-द्वेष से अभिव्याप्त होते हैं । आशय यह है कि राग-द्वेषयुक्त किसी भी पुरुष का किया हुया वेदार्थव्याख्यान विश्वसनीय नहीं होगा। तथा आपके मत में वेद स्वयं तो अपने अर्थ का प्रतिपादन करता नहीं है । तदुपरांत, वेद के सही अर्थ का प्रतिपादक अपौरुषेय कोई वेद का व्याख्यान सिद्ध नहीं है जो स्पष्टार्थ हो और जिससे वेद का सही अर्थ जान सके । तथा वैदिक-लौकिक वाक्यों का भेद मानने पर लौकिक शब्द के अर्थों का अनुसरण कर के वेद के शब्दों के अर्थ की कल्पना योग्य नहीं है । इस प्रकार सभी रीति से वेद का सही अर्थ अप्रसिद्ध ही रहेगा अतः वैदिक और लौकिक वाक्यों में भेद का स्वीकार श्रेयस्कर नहीं है इसलिये लौकिक शब्दों को तरह वैदिक शब्दों को पौरुषेय मानना ही बुद्धिसंगत है । [वैदिक और लौकिक शब्दों में कोई अंतर नहीं है ] लौकिक एवं वैदिक शब्दों में इतनी बात तो समान ही है कि दोनों शब्दों का स्वरूप तुल्य है, अर्थ का प्रतिपादन संकेतज्ञान पर अबलंबित है, यदि उनका प्रयोग न किया जाय तो किसी पुरुष को नहीं सुनाई देना । जब इतनी समानता है तो ऐसी अब कौनसी विशेषता वेद में है जिसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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