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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
सम्भवन्ति । तथाहि-प्रत्यक्षागमबाधितकर्म निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वं हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वमुच्यते । न च यत्र स्वसाध्याऽविनाभूतो हेतमणि प्रवर्तमानः स्वसाध्यं व्यवस्थापयति तत्रैव प्रमाणान्तरं प्रवृत्तिमासादयत् तमेव धर्म व्यावर्तयति, एकस्यैकदैकत्र विधि-प्रतिषेधयोविरोधात् । तन्न बाधाऽविनाभावयोः सम्भव इति न कालात्ययापदिष्टत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः सम्भवति ।
२. प्रकरणसमत्वमपि प्रतिहेतोविपरीतधर्मसाधकस्य प्रकरणचिताप्रवर्तकस्य तत्रैव धामणि सद्भाव उच्यते । न च स्वसाध्याविनाभूतहतसाधितधर्मणो धर्मिणो विपरीतत्वं सम्भवति, इति न विपरीतधर्माधायिनो हेत्वन्तरस्य तत्र प्रवृत्तिरिति न प्रकरणसमत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः । ३. अप्र. योजकत्वं तु पक्षधर्मान्वय-व्यतिरेकाणामन्यतमरूपाभावः, न च प्रकृते हेतौ तदभाव इति दशितम् ।
___अथानुमानलक्षणयुक्तस्य प्रत्यनुमानस्याऽपौरुषेयत्वसाधकस्य सद्भावात प्रकरणसमता प्रकृतस्य हेतोः, अनुमानबाधितत्वं वा पक्षस्य दोषः । प्रत्यनुमानं च दशितम्-[ श्लो० वा० स० ७ श्लो० ३६६] वेदाध्ययनमखिलं गर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाऽध्ययनं यथा ॥इति।।
। उत्तरपक्षी का हेतु में विरुद्धादि दोष का अभाव ] हेतु विपक्षवृत्ति होने की शंका दूर हो जाने के विरुद्ध भी नहीं है । जो हेतु पक्ष में विद्यमान होने के साथ सपक्ष में विद्यमान न हो कर, केवल विपक्ष में निवास करे उसी का नाम है विरुद्ध, नररचितरचनाऽविशिष्टत्व हेतु विपक्षनिवासी नहीं है-यह तो कह दिया है।
१. कालात्ययापदिष्ट [ =बाध ]-२. प्रकरणसम [ -- सत्प्रतिपक्ष ] और 3. अप्रयोजकत्व ये तीन दोष भी प्रस्तुत हेतु में संभव नहीं है। जैसे कि- (१) प्रत्यक्ष अथवा आगम से कर्म यानी साध्य का निर्देश बाधित होने पर किसी हेतु का प्रयोग कालात्ययापदिष्ट कहा जाता है । किन्तु ऐसा संभव नहीं है कि अपने साध्य का अविनाभावि हेतु पक्ष में प्रवृत्त हो कर जब अपने साध्य की सिद्धि का उद्यम करे उसी वक्त (पूर्व में नहीं.) दूसरा कोई प्रमाण आकर उस धर्म (=साध्य) का निवर्तन करे, क्योंकि एक ही काल में एक पक्ष में एक ही धर्म का विधि-निषेध परस्पर विरुद्ध है । इस लिये बाध और अन्य प्रमाण का अविनाभाव ये दोनों का एक काल में संभव न होने से फलित होता है कि अविनाभावी हेतु में कालात्य यापदिष्टता दोष का संभव नहीं है।
(२) प्रस्तुत साध्य की सिद्धि के प्रकरण में चिन्ता उपस्थित करे ऐसा विपरीत साध्य का साधक प्रतिपक्षी हेतु का उसी पक्ष में अस्तित्व होना-इसको प्रकरणसम दोष कहा जाता है। किन्तु जिस धर्मी में अपने साध्य के अविनाभावि हेतु ने अपने साध्य को सिद्ध कर दिखलाया है ऐसे धर्मी का वैपरीत्य यानी प्रस्तुतसाध्य विरोधी साध्यवत्ता का वहाँ संभव ही नहीं है। प्रस्तुत पक्ष में भी हेतु अपने साध्य का नितान्त अविनाभावि होने से विपरीत साध्य का साधक प्रतिपक्षी हेतु की प्रवृत्ति ही नहीं है इसलिये प्रस्तुत अविनाभूत हेतु में प्रकरणसमत्व दोष भी नहीं है ।
(३) जिस हेतु में पक्षधर्मता तथा साध्य के साथ अन्वय अथवा व्यतिरेक इन में से किसी एक का अभाव हो उसको अप्रयोजक दोष कहा जाता है। [ अपने साध्य का दृढ प्रयोजक यानी आपादक न हो वह अप्रयोजक है ] प्रस्तुत हेतु में किसी भी एक का अभाव नहीं है यह पहले दिखाया गया है।
[ हेतु में प्रकरणसमत्व का आपादन-पूर्वपक्ष ] यदि यह शंका की जाय
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