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________________ १५८ सम्मतिप्रकरण नयकाण्ड-१ अत एव महत्त्वादिधर्मयुक्तस्य सर्वदा प्रतीयमानत्वाद् गादेन तद्धर्मयुक्ततया प्रतीयमानस्य उपचरितप्रत्ययविषयता। तदुक्तम्-योऽद्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथाऽपि वा। स भ्रान्तो न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते ॥[ ] इति । तन्न व्यंजकधर्माध्यारोपादुपचरितप्रत्ययविषत्वं तथाभूतस्य गादेः, सर्वभावानामुपचरितप्रत्ययविषयत्वेन स्वरूपाभावप्रसंगाद । न च व्यंजकस्य प्रदीपादेरल्प महत्त्वभेदाद् व्यंग्यस्य घटारेल्पमहत्त्वभेदप्रतिभासो दृष्टः । __ अथ व्यंजकधर्मानुकारित्वं व्यंग्ये उपलभ्यते । तथाहि-एकस्वरूपमपि मुखं खड्गे प्रतिबिम्बितं दोघम् , आदर्शे वर्तुलम् , नीलकाचे गौरमपि श्याम, व्यंजकधर्मानुकारितया प्रतिभासविषयमुपलभ्यते इति प्रकृतेऽपि तथा स्यात् । एतदप्यसंगतम्-दृष्टान्तमात्रादर्थाऽसिद्धः, तस्य हि साध्य-साधनप्रतिबंधसाधकप्रमाणविषयतया साध्यसिद्धावपयोगो न स्वतन्त्रस्य । अन्यथा-"एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः" [ अमृतबिंदु उ० १२-१५ ] इत्यादिदृष्टान्तमात्रतोऽद्वैतवादिनोऽपि पुरुषाद्वैतसिद्ध : शब्दस्वरूपस्याप्यभावात् कस्योपचाराद् महत्त्वादिप्रतिभास इत्युच्यते ? उसी तरह भ्रान्त हो जाने से उसके स्वरूप की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। भ्रमात्मक बुद्धि से जब चन्द्रयुगल का दर्शन होता है तो वह चन्द्र के एकत्व स्वरूप के साथ संगतिवाला नहीं होता। यदि यह कहा जाय-'गकारादि संबंधी अल्पत्व-महत्त्व की बुद्धि को हम भ्रान्त कहते हैं तो गकारादि संबद्ध अल्पत्व और महत्त्व को आप अव्यवस्थितस्वरूप वाले कह सकते हैं, किन्तु गकारादि वर्ण अव्यवस्थित स्वरूप वाला नहीं मान सकते। कारण, उसकी प्रतीति अभ्रान्त है । एक विषय की प्रतीति भ्रान्त यानी बाधित होने पर अन्य विषय प्रतीति को भ्रान्त नहीं कहा जा सकता, अन्यथा एक भ्रान्तप्रतीति के उदाहरण से सभी प्रतीतियों में भ्रान्तता मानने की आपत्ति होगी।'-तो यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि इसको तभी युक्त मान सकते हैं जब द्वित्व रहित चन्द्र जैसे पृथक् प्रतीति का विषय होता है वैसे अल्पत्व-महत्त्वादिधर्म को छोडकर पृथक ही गकारादि की प्रतीतिविषयता सिद्ध होती । अरे ! स्वप्न में भी किसी को अल्पत्वादि से विनिर्मुक्त गकारादि की प्रतीति नहीं होती तो फिर महत्त्वादि धर्म का परित्याग कर कैसे गकारादि वर्ण की स्वरूप व्यवस्था हो सकेगी ? [गकारादि में भेदप्रतिभास उपचरित नहीं है ] महत्त्वादिधर्मविरहित गकारादि कभी भी प्रतीत नहीं होते इसीलिये महत्त्वादि धर्म संलग्न तया प्रतीत होने वाले गकारादि को उपचरित यानी भ्रान्त प्रतीति का विषय नहीं माना जा सकता क्योंकि महत्त्वादिधर्मसंलग्नतया ही सर्वदा गकारादि प्रतीत होते हैं। जैसे कि कहा है-'जिस एक रूप से जो संवेद्य होता है, यदि वह विपरीतरूप से संवेद्यमान हो तो वह भ्रान्त यानी भ्रम विषय बन जाता है, किन्तु जो हरहमेश उसी रूप से संवेद्यमान होता है वह भ्रान्त नहीं होता।' सारांश, महत्त्वादिधर्म-विशिष्ट गकारादि को व्यंजकधर्म का अध्यारोप मान कर उपचरित बुद्धि यानी भ्रमबुद्धि की विषयता मानना संगत नहीं है। अन्यथा, सकल पदार्थों के स्वरूपाभाव का अतिप्रसंग होगा क्योंकि उपचरितबुद्धिविषयता सभी में मानी जा सकती है। ऐसा कभी भी नहीं देखा गया कि व्यंजक प्रदीप-प्रकाशादि अल्प-महान् आदि भिन्न भिन्न होने पर प्रकाश्य घट-पटादि में छोटे-बड़े का भेद प्रतिभासित होता हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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