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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः १५९ मुखादीनां च छाया खड्गादौ संक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभाति न मुखादयः । न च गादीना छाया व्यंजकध्वनिसंक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभातीति शक्यम वक्त, शब्दस्य भवताऽमूतत्वेनाभ्यु पगमात , अमूर्तस्य च मूर्तध्वनौ छायाप्रतिबिम्बनाऽसंभवात् । मूर्तानामेव हि मुखादीनां मूत्त आद दिौ छायाप्रतिबिम्बनं दृष्टं, नाऽमूर्तानामात्मादीनाम् । अष्टे च ध्वनौ छाया प्रतिबिम्बिताऽपि न गृह्यत कथं तद्धर्मानुकारितया प्रतीतिविषयः ? न च ध्वने: शब्दप्रतिभासकाले श्रवणप्रतिपत्तिविषयत्वम, उभयाकारप्रतिपत्तेरसंवेदनात् । तन्न व्यंजके ध्वनौ प्रतिबिम्बिता गकारादिच्छाया प्रतिभाति । नाप्यमूर्ते गादौ ध्वनिच्छायाप्रतिबिम्बनं युक्तम् , अमूर्ते प्राकाशादौ घटादिच्छायाप्रतिबिम्बनानुपलब्धेः । तदयुक्तमुक्तम्- 'खड्गादौ दोघ [व्यंजकध्वनियों के धर्मों का शब्द में उपचार होने की शंका ] उपचारवादी:-ऐसे भी व्यंग्य [ =प्रकाश्य पदार्थ होते हैं जो व्यंजक के धर्मों का अनुकरण करते हैं। उदा० मुंह का एक ही स्वरूप खड्ग में प्रतिबिम्बत होने पर खड़गवत् लम्बा, वर्तुलाकार दर्पण में गोलाकार, तथा गौरवर्ण होते हुये भी नीलवर्ण काच में श्यामवर्णवाला, इस प्रकार उन उन व्यंजकों के सदृशधर्म का अनुकरण करता हुआ उपचरितवृद्धि का विषय बनता है । तो प्रकृत में व्यंजकध्वनिओं का अल्प-महान् धर्म व्यंग्य में उपलब्ध होने में कोई असंगति नहीं है। उत्तरपक्षी:- यह बात भी असंगत है। कारण, केवल एक दो दृष्टान्त मात्र मिल जाने से पदार्थ सिद्धि नहीं होती । दृष्टान्त तो साध्य और हेतु की व्याप्ति के लिये साधक प्रमाण के विषयरूप में साध्यानुमान में उपयोगी होता है, उसका कोई स्वतन्त्र उपयोग नहीं है । अन्यथा “एक ही भूतात्मा भूत भूत में अवस्थित है" [ एवधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ] इस प्रकार के उपनिषद् वाक्य से प्रतिपादित चन्द्रप्रतिबिम्ब के दृष्टान्तमात्र से अद्वैतवादी का पुरुषाद्वैतवाद भी सिद्ध हो जायेगा-फिर न रहेगा शब्द, न रहेगा महत्त्वादि, तो किसके उपचार से मीमांसक महत्त्वादि प्रतिभास की बात करेगा ? [अमृत का मूर्त में प्रतिबिम्ब संभव नहीं है ] खड़गादिव्यंजक धर्म का अनुकरण करती हयी जो दिखाई देती है वह मुखादि की छाया [ = प्रतिविम्ब होती है, मुखादि स्वयं नहीं होते। यह नहीं कहा जा सकता कि-"गकारादि की छाया का व्यंजकनादों में संक्रमण होता है तो गकारादि की छाया अल्पत्वादि धर्म का अनुकरण करती हुयी दिखाई देती है किन्तु स्वयं गकारादि अल्प त्वादिविशिष्ट नहीं होते।" क्योंकि आपके मतानुसार शब्द को अमूर्त माना गया है । अमूर्त शब्द की मूर्त व्यंजक नादों में छाया प्रतिबिम्बत होने का कोई संभव नहीं है । मूर्त दर्पणादि में मूर्त मुखादि की छाया का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है किन्तु अमूर्त आत्मादि की छाया का प्रतिबिम्ब नहीं देखा गया। दूसरी बात यह है कि व्यंजकनाद भी अदृश्य होते हैं तो उसमें प्रतिबिम्बित होने पर भी छाया का ग्रहण होना शक्य नहीं है तो फिर व्यंजकधर्मों के अनुकरणकर्तारूप में छाया का दर्शन कैसे माना जाय ? [महत्त्वादिधर्मभेदप्रतिभास यथार्थ होने से गादिभेदसिद्धि ] यह भी ध्यान देने की बात है कि जब शब्दप्रतिभास होता है उस काल में नाद श्रावण प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। क्योंकि उसके प्रत्यक्ष होने पर 'नाद और शब्द' का उभयाकार संवेदन होना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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