SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दाऽनित्यत्व० १५७ ण्यम , तस्यास्तद्विषयतयाऽबाध्यमानत्वात् । न चायं प्रकारोगादिविषयप्रत्यभिज्ञायाः सम्भवति, तथा• भूतकेशादिष्विव गादिभेदविषयाबाधितप्रतिभासाभावेन तदभेदाऽसिद्धौ ‘समानानां भावः सामान्यम्' इति कृत्वा तत्र सामान्यस्यैवाऽसम्भवात् । असदेतत् - गादिष्वपि 'पूर्वोपलब्धगादेः सकाशाद अयमल्पः, महान , कर्कशः, मधुरो वा गादिः' इत्यबाधिताक्षजप्रतिभाप्तसद्भावेन भेदनिबन्धनसामान्यसंभवस्य न्यायानुगतत्वात् । न च यथा तुरगजबस्य पुरुषेऽध्यारोपात् 'पुरुषो याति' इति प्रत्ययः व्यपदेशश्च तथा व्यंजकध्वनिगतस्याल्पकर्कशादेवावुपचारात तथाप्रत्ययः व्यपदेशश्चेत्यभ्युपगंतु शक्यम्-तथाऽभ्युपगमे वाहीके गोप्रत्ययवद् गादिप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेन गादिस्वरूपाऽसिद्धिप्रसंगात । न हि भ्रान्तप्रत्ययसंवेद्या द्विचन्द्रादयः स्वरूपसंगतिमनुभवन्ति । न चाल्पमहत्त्वप्रत्यययोभ्रन्तित्वेऽल्पमहत्त्वे एव गादिविषये अव्यवस्थितस्वरूपे न पुनर्गादिको वर्णः, तत्प्रत्ययस्याऽभ्रान्तत्वात, न चाऽन्यविषयप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेऽन्यस्य तथाभावोऽतिप्रसंगादिति वक्तु युक्तम् । यतो यद्यपमहत्त्वाविधर्मव्यतिरिक्तस्य गादेद्वित्वरहितस्येव निशीथिनीनाथस्य प्रत्ययविषयत्वं स्यात् तदैव तद् युज्येताऽपि वक्तु, न च स्वप्नेऽपि तद्धर्मानध्यासितो गादिः केनचित् प्रतीयत इति कथं तस्य महत्त्वादिधर्मरहितस्य स्वरूपव्यवस्था ? वाली प्रत्यभिज्ञा उस समुदाय में रहे हुए सामान्य नखत्व आदि को विषय करती है और वह सामान्य एक होने से ऐक्य ग्राहक प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की उपपत्ति कर सकते हैं क्योंकि उस सामान्य को प्रत्यभिज्ञा का विषय मानने में कोई बाध नहीं है। किन्तु इस प्रकार से गकारादि प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य को उपपत्ति नहीं को जा सकती। कारण, सामान्य से अनविद्ध भिन्न भिन्न केशादि की जैसे अबाधित प्रतीति होती है वैसे गकारादि के भेद को विषय करने वाला कोई अबाधित अनुभव नहीं होता। अतः उनका भेद भी सिद्ध नहीं होता। जब भेद सिद्ध नहीं है तो उनमें सामान्यतत्त्व होने का भी संभव नहीं है क्योंकि व्यक्ति अनेक होते हुए समान होने पर 'समानों का भाव-सामान्य' इस प्रकार के सामान्य का उसमें संभव हो सके, किन्तु यहाँ गकारादि की अनेकता यानी भेद असिद्ध होने से उनमें सामान्य की सिद्धि नहीं होगी। तो सामान्यविषयक मानकर गकारादि की प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य का उपपादन नहीं होगा। [फलत: गकारादि को एकमात्र व्यक्तिरूप मानकर उसकी प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण मानना ही होगा।] [गकारादि वर्ण में भेदप्रतीति निधि है--उत्तर पक्ष ] नित्यवादी का पूर्वोक्त कथन अयुक्त है। कारण, केशादि में भेदप्रतीति होती है वैसे गकारादि में भी-'पूर्व में श्रृत गकारादि से यह अल्प [ घनता वाला ] है, अथवा महान् है, या कर्कश अथवा मधुर है' इस प्रकार भेदप्रतीति इन्द्रियों से निर्बाध होती है। तो भेदमूलक सामान्य का गकारादि में सद्भाव मानना न्याययुक्त ही है। यह नहीं मान सकते कि-'जैसे अश्व के वेग का अश्वरूढ पुरुष में अध्यारोप-उपचार करने पर 'पुरुष जा रहा है' ऐसी बुद्धि या व्यवहार होता है-उसी प्रकार व्यंजक ध्वनि में अन्तर्भूत अल्पत्यकर्करबादिकामकारादि में अध्यारोप होने पर 'कर्कशो गकारः' इत्यादि प्रतीति और व्यवहार हो जायेगा।' यदि ऐसा मानेगे तो-बैलवाहक में गोबुद्धि जैसे भ्रमात्मक होती है, मकारादि बुद्धि भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy