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________________ १२ मूलप्रन्थ का परिचय: दार्शनिक ग्रन्थरत्तों में सम्मतितर्कप्रकरण एवं उसकी आ० श्री अभयदेवसूरि कृत 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुलग्रन्थ का नाम 'सम्मतिप्रकरण' के फिर भी 'सम्मतितर्क' इस नाम से यह प्रकरण अधिक प्रसिद्ध है। कारण, यह ग्रन्थ तर्कप्रकरणरूप है इसलिये 'सम्मति-तर्क प्रकरण' इस तरह की प्राचीन काल में उसकी ख्याति रही होगी, कालान्तर में 'तर्क' शब्द का 'सम्मति' शब्द के साथ प्रयोग होने लगा और 'प्रकरण' शब्द अध्याहार रहने लगा तब से 'सम्मतितर्क' यह उस का संक्षिप्तरूप विख्यात हो गया। अलबत्ता 'सन्मति = अर्थात् सम्यक्त्व शुद्ध मति जिससे प्राप्त होती है वैसे तर्क सन्मतितर्क, इस व्युत्पत्ति से इस शास्त्र का एक नाम 'सन्मति' भी कहीं पढने में आता है किन्तु अधिकतर प्राचीन आचार्यों ने 'सम्मति' नाम का ही विशेष उल्लेख किया है, 'सन्मति' नाम का नहीं। 'संगता मति: यस्मात्' इस व्युत्पत्ति के आधार पर भी 'सम्मति' नाम सान्वर्थ प्रतीत होता है। मुख्यतया यह ग्रन्थ जैन दर्शन के अनेकान्तवाद से सम्बद्ध है, किन्तु एकान्त के निरसनपूर्वक ही अनेकान्त की प्रतिष्ठा शक्य होने से यहाँ मूल ग्रन्थ में संक्षेप में न्याय-वैशेषिक-बौद्ध दर्शनों की समीक्षा भी प्रस्तुत है । तदुपरांत, मूल ग्रन्थ में द्रव्याथिकादि नय, सप्तभंगी, तथा ज्ञानदर्शनाभेदवाद इत्यादि जैन दर्शन के अनेक विषयों की महत्त्वपूर्ण चर्चा की गयी है। व्याख्याग्रन्थ परिचय: _ 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या करिब २५००० श्लोकात्र परिमित है और यह दार्शनिक चर्चाओं का भंडार है । उस काल में प्रचलित कई दार्शनिक चर्चास्पद विषयों की इसमें समीक्षा की गई हैं । अनेकान्त दर्शन को सर्वोत्कृष्टता की स्थापना यही व्याख्याकार का लक्ष्य बिन्दु है और उसमें वे सफल रहे हैं। व्याख्या की शैली प्रौढ एवं गम्भीर है। प्रस्तुत प्रथम खंड में सिर्फ एक ही मूल कारिका की व्याख्या और उसके हिन्दी विवरण को शामिल किया है। प्रथम खंड के विषयों का विहंगावलोकन इस प्रकार है - मूल कारिका के 'सिद्धं सासणं' इस अंश की व्याख्या में ज्ञान के स्वतः प्रामाण्य-परतः प्रामाण्य की चर्चा में अनभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य की प्रतिष्ठा की गयी है। वेद की अपौरुषेयता का निराकरण, वेद के प्रामाण्य का निराकरण, ज्ञातृव्यापार के प्रामाण्य का निराकरण भी यहाँ प्रसंगतः किया गया है । प्रसंगतः अभाव प्रमाण का भी खण्डन किया गया है । जिनानाम्' इस कारिकापद की व्याख्या में विस्तार से वेद की अपौरुषेयता का तथा शब्द की नित्यता का प्रतिषेध किया गया है। तदुपरांत, सर्वज्ञ न मानने वाले नास्तिक एवं मीमांसक के मत की विस्तार से आलोचना करके सर्वज्ञसिद्धि की गयी है। सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में ही 'कुसमयविसासणं' पद की व्याख्या दर्शायी गयी है। __ 'भवजिणाणं' पद की व्याख्या में परलोक की प्रतिष्ठा कर के नास्तिक का निराकरण किया गया है और अनुमान के प्रामाण्य की स्थापना की गयी है। तदुपरांत, ईश्वरकर्तृत्व की विस्तार से आलोचना की गयी है। 'ठाणमणोवमसुहंउवगयाणं' इस पद की व्याख्या में विस्तार से आत्मविभुत्ववाद का खण्डन किया है और मुक्ति में सुख न मानने वाले नैयायिकमत का निराकरण किया गया है। प्रसंगतः शब्द में गुणत्व का निराकरण और द्रव्यत्व की सिद्धि की गई है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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