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________________ राज के पट्टालंकार शिष्य थे । उत्तराध्ययन सूत्र के पाइय वृत्ति के निर्माता वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी, जिन का स्वर्गवास वि०सं० १०९६ में होने का प्रसिद्ध है, वे अभयदेवसूरि महाराज का प्रमाणशास्त्र के गुरुरूप में सबहुमान उल्लेख करते हैं। इसलिये व्याख्याकार का समय वि० सं० ६५० से १०५० की सीमा में माना गया है। प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार श्री सिद्धसेन सूरिजी अपनी प्रशस्ति में, पार्श्वनाथ चरित्र के रचयिता श्री माणिक्यचन्द्रसूरिजी पार्श्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में और प्रभावक चरित्र को प्रशस्ति में वादमहार्णव (सम्मतिव्याख्या) के कर्ता के रूप में श्री अभय. देवसूरि महाराज का सबहुमान स्मरण किया गया है । सम्मतिप्रकरण की विस्तृत प्रौढ व्याख्या आप की अगाध प्रज्ञा का उन्मेष है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थयुगल के कर्ता दिगम्बर आचार्य श्री प्रभाचन्द्र का समय विद्वानों में वि० सं० १००० से ११०० के बीच में माना जाता है क्योंकि वादीवेताल श्री शान्ति सूरिजी और न्यायावतारवार्तिक के कर्ता आ० श्री शान्तिसूरिजी ने उसका उल्लेख नहीं किया किन्तु स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता श्री वादिदेवसुरिजो जो वि० सं० ११४३ से १२२२ के बीच हुए उन्होंने अपने ग्रन्थ में अनेक स्थलों में आ. प्रभाचन्द्र का नाम लेकर खंडन किया है, आचार्य प्रभाचन्द्र की उत्तरावधि का ठोस निणायक प्रमाण यहां है। इससे व अन्य प्रमाणों से तक पंचानन श्री अभयदेवसूरिजी, दिगम्बर श्री प्रभाचन्द्र के पूर्वकाल में ही थे यह निश्चित होता है। इससे यह कल्पना निरस्त हो जाती है कि 'आचार्य अभयदेवसरि महाराज ने प्रमेयकमलमार्तण्डादिग्रन्थ के सहारे अपनी व्याख्या का निर्माण किया था।' प्रत्युत इसी कल्पना में औचित्य है कि प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थों के निर्माण में सम्मति व्याख्या का पर्याप्त उपयोग किया है। सम्मति व्याख्या और उस ग्रन्थयुगल में जो समान पदावली हैं उनको परीक्षकदष्टि से देखने पर भी उक्त निश्चय हो सकता है, क्योंकि कहीं कहीं जो अनुमान प्रयोग अभयदेवसूरि महाराज प्राचीन ग्रन्थों के वाक्यसंदर्भो को लेकर विस्तार से करते हैं, वहाँ आ. प्रभाचन्द्र उतने विस्तार को अनावश्यक मान कर संक्षेप कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति की चर्चा अभयदेवसूरि महाराज संक्षेप से करते हैं जब कि आ. प्रभाचन्द्र बड़े विस्तार से करते हैं । यदि सम्मति व्याख्याकार के समक्ष ग्रन्थयुगल रहता तब तो इतनी बड़ी व्याख्या में वे प्रभाचन्द्र के युक्तिसंदर्भो की विस्तार से आलोचना करना छोड नहीं देते। ग्रन्थयुगल के सम्पादक ने यह भी एक कल्पना की है कि वादिदेवसूरि महाराज ने ग्रन्थयुगल से स्याद्वादरत्नाकर में बहुत उतारा किया है । वास्तव में यह भी निर्मूल कल्पना है, क्योंकि वादिदेवसूरि महाराज की रचना का आधार मुख्यवृत्ति से अनेकान्तजयपताका और सम्मति व्याख्या हो रहा रहा है अत. ग्रत्थयुगल के साथ जो अनेक स्थलों में समानता है वह सम्मतिव्याख्यामूलक है, किन्तु नहीं कि ग्रन्थयुगलमूलक । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने अनेक ग्रन्थों में सम्मतिवृत्तिकार के व्याख्याग्रन्थ में से उद्धरण दिये हैं। अन्य भी अनेक ग्रन्थकारों ने सम्म तिव्याख्या का अनेक स्थल में आधार लिया है। व्याख्याकार अभयदेवसूरि महाराज स्वय पांच महाव्रत के धारक एवं सम्यक पालक थे। उनको श्वेताम्बर जैन गगन को आलोकित करने वाले उज्ज्वल चन्द्र कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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