SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० "चरण करणानुयोगरप्टिं निशीथ-कल्प व्यवहार-दृष्टिवादाध्ययनइं जघन्य मध्यमोत्कृष्ट गीतार्थ जाणवा । द्रव्यानुगोष्टि ते सम्मति आदि तर्कशास्त्रपारगामी ज गीतार्थ जाणवो, तेहनी निश्राइं ज अगीतार्थनई चारित्र कहिवू ।" इस वचन संदर्भ से यह फलित होता है कि दृष्टिवाद के अभाव में सम्मति आदि तर्कशास्त्रों के द्रव्यानुयोग के ज्ञाता हो ऐसे गुरु की निश्रा में रहने पर ही अगीतार्थ में चारित्र की सम्भावना रहती है अन्यथा नहीं । निशीथचूणि आदि ग्रन्थों में भी दर्शन प्रभावक के ग्रन्थरत्नों में श्री सम्मति तर्क प्रकरण आदि ग्रन्थों का निर्देश किया गया है इसलिये आज या कल, किसी भी काल में जैन मुनिवर्ग के लिये द्रव्यानुयोग और सम्मति प्रकरण आदि ग्रन्थ का अध्ययन कितना उपादेय है यह विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं रहती। उपयुक्त अवतरणों को पढने से कोई भी विद्वान यह समझ सकेंगे। ग्रन्थकार परिचय: इस ग्रन्थ के मूलकार दिवाक र उपाधिविभूषित आचार्य श्री सिद्धसेन सूरीश्वरजी महाराज हैं । परम्परा से यह सिद्ध है कि वे संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के प्रतिबोधक थे। आधुनिकवर्ग में भी माना जाता है कि ये विक्रम को चौथी शताब्दी के बाद तो नहीं ही हुए, कारण, वि. सं. ४१४ में बौद्धों का पराजय करने वाले तार्किक मल्लवादीसूरिजो ने सम्मतिग्रन्थ के ऊपर करीब ७०० श्लोकपरिमित व्याख्या बनायी थी। अत: निश्चित है कि दिवाकरमूरिजी उनके पहले ही हुए हैं। तदुपरांत, प्राचीन ऐतिहासिक प्रबन्धग्रन्थों में भी विक्रमादित्य नृप के साथ उनका धनिष्ट सम्बन्ध दिखाया जाता है इससे भी उनका समय वीर निर्वाण की पांचवी शताब्दी ठीक ही है। सम्मति प्रकरण के अतिरिक्त उन्होंने बत्रीश बत्रीशोयों का और न्यायावतार बत्रीशी का निर्माण किया है, जो जैन शासन का अमूल्य दार्शनिक साहित्यनिधि है, निश्चित है कि ये श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य श्री वृद्धवादीसूरिजी के शिष्य थे। फिर भी कई दिगम्बर विद्वान उन्हें यापनीय परम्परावाले दिखा रहे हैं। दिगम्बर अनेक आचार्यों ने सम्मतिग्रन्थ आदि का पर्याप्त सहारा लिया है, श्वेताम्बर परम्परा का शायद इससे कुछ गौरव बढ जाय ऐसे भय से उमास्वाति महाराज या दिवाकरसूरिजी को यापनीय परम्परा में शामिल कर देना यह शोभास्पद नहीं है । दिवाकरसूरि महाराज जिनशासन के उत्तम प्रभावकों में गिने जाते हैं। व्याख्याकार परिचय: ___ इस ग्रन्थ के 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या के रचयिता हैं तर्क पंचानन आचार्य श्री अभयदेवसरिजी महाराज । नवांगी टीकाकार से ये सर्वथा भिन्न हैं और उनके पहले हो गये हैं। इस व्याख्या के रचयिता तर्क पंचानन श्री अभय देवसूरिजी ये चन्द्रगच्छ के आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी महा * देसणगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छप-संमतिमादि गेण्हंतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडि सेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः ( नि० पहले उद्देशक की चूणि )। [यहाँ 'सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख देखकर दिगम्बर विद्वान यह समझते हैं कि अकलंककृत सिद्धिविनिश्चय निशीथचूणि से पुराना है-किन्तु यह भ्रमणा है। वास्तव में यहाँ अकलंक से भी पूर्ववर्ती शिवार्यकृत सिद्धिविनिश्चयग्रन्थ का निर्देश है-देखिये पू० मुनिराजश्री जंबूविजय म० संपादित-स्त्रीमुक्ति केवलिमुक्ति प्रकरण पृ० १६ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy