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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातव्यापार० अथ "कार्य धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः, स तदभावेऽपि भवन कार्यमेव न स्याव" इत्यनग्नौ धूमस्य सद्भावबाधकं प्रमाणं विद्यत इति नासौ सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकस्तहि एतत् प्रकृतेऽपि वक्तृत्वादौ समानमिति तस्याप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात्। कि च, कार्यत्वे सत्यपि वक्तृत्वादेः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽसर्वजत्वं प्रत्यनियतत्वाद् यद्यगमकत्वं तहि स एवाऽस्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो भवति । अपि च, तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसंबन्धाभावेऽपि नियमलक्षणसंबन्धप्रसादात कृत्तिकोदय-चन्द्रोद्गमन-प्रद्यतनसवित्रुद्गमगृहीताण्डपिपीलिकोत्सर्पण-एकानफलोपलभ्यमानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां यथाक्रमं भाविशकटोदयसमानसमयसमुद्रवृद्धि-श्वस्तनभानुदय-भाविवृष्टि तत्समानकालसिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्येषु गमकत्वं सुप्रसिद्धम् । संयोगादिलक्षणस्तु संबन्धो भवतैव साध्यप्रतिपादनांगत्वेन निरस्त इति तं प्रति न प्रयस्यते। [विपक्षबाधक तक उभयत्र समान है ] पूर्वपक्षी:-आपने जो कहा कि-'अग्नि के विपक्ष में धूम की सत्ता होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है'-यह मिथ्या है, क्योंकि बाधक प्रमाण यह रहा-धूम अग्नि का कार्य है क्योंकि कार्य के जो गुणधर्म होते हैं उनकी उसमें अनुवृत्ति है, अब यदि वह अग्नि के अभावस्थल में भी रहेगा तो वह उसका कार्य ही न होगा, अर्थात् उसके कार्यत्व के भंग की आपत्ति होगी। इस प्रकार का बाधक तर्क विद्यमान होने से धूम हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति यानी विपक्ष में उसका अभाव संदिग्ध नहीं रहता किन्तु निश्चित हो जाता है । उत्तरपक्षी:-ऐसा तर्क तो प्रस्तुत स्थल में भी समान ही है वक्तृत्व असर्वज्ञता का कार्य दिखाई देता है क्योंकि उसमें भी कार्यधर्म की अनुवृत्ति उपलब्ध है। यदि वह असर्वज्ञता का कार्य होने पर भी असर्वज्ञता के अभावस्थल में रहेगा तो वह उसका कार्य न हो सकेगा, अर्थात् उसके कार्यत्व के भंग की आपत्ति होगी । तो इस प्रकार वक्तृत्व भी असर्वज्ञता के गमक हो जाने की आपत्ति तदवस्थ रहती है। [वक्तृत्व को अनियत मानने पर नियम की सिद्धि ] दूसरी बात यह है कि वक्तृत्व हेतु यह असर्वज्ञ का कार्य होने पर भी उसको विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध होने से असर्वज्ञत्व के प्रति नियमत: संबद्ध न होने से असर्वज्ञता का गमक नहीं बन सकता है तो उसका निष्कर्ष यह फलित हुआ कि बौद्ध ने जो तदुत्पत्तिरूप संबंध गम्य-गमकभाव नियामक माना है वह अयुक्त है और हमने जो अविनाभावरूप नियम यानी व्याप्ति को गम्य-गम कभाव नियामक संबन्ध रूप में माना है वही ठीक है और आपने भी यहाँ उसका स्वीकार किया। इस बात पर भी बौद्ध को ध्यान देना जरूरी है कि जहां तादात्म्य और तदुत्पत्ति में से एक का भो सम्भव नहीं होता ऐसे कई स्थलों में नियमात्मक संबंध की कृपा से साध्य की गमकता हेतु में सुप्रसिद्ध है-वे स्थल क्रमश: इस प्रकार हैं - साध्य A कृत्तिका नक्षत्र का उदय हआ। A अब शकट नक्षत्र का उदय होगा। B चन्द्र का उदय हुआ। B इस काल में ही समुद्र में भरती आई होगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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