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सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
एवं परोक्तसंबंध प्रत्याख्याने कृते सति । नियमो नाम संबंधः स्वमतेनोच्यतेऽधुना ॥ कार्यकारणभावादिसंबन्धानां द्वयी गतिः । नियमाऽनियमाभ्यां स्यादनियमादतद्गता ॥
saमा ह्येते नामोत्पत्तिकारणम् । नियमात् केवलादेव न किंचिन्नानुमीयते ॥ इत्यादि ।
स च सम्बन्ध: a किमन्वयनिश्चयद्वारेण प्रतीयते, उत b व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण इति विकल्पद्वयम् । तत्र यदि प्रथमो विकल्पोऽभ्युपगम्यते, तत्रापि वक्तव्यम् - कि a1 प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, a2 उतानुमानेन इति ? a1 न तावत् प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, अन्वयस्य हि रूपं तद्भावे तद्भावः' । न च ज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्य प्रत्यक्षेण सद्भावः शक्यते ग्रहीतुम्, तद्ग्राहकत्वेन प्रत्यक्षस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् स्वयानभ्युपगमाच्च । नापि ज्ञातृव्यापारसद्भावे एवार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सद्भावः प्रत्यक्षेण ज्ञातु शक्यः, तस्यापीन्द्रियव्यापारजेन प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः, तदशक्तिश्च प्रक्षाणां तेन सह सम्बन्धाभावात् । नापि स्वसंवेदनलक्षणेन प्रत्यक्षेण पूर्वोक्तस्य हेतोः सद्भाव: शक्यो निश्चेतुम् भवदभिप्रायेण तत्र तस्याऽव्यापारात् । तन्न प्रत्यक्षेण साध्यसद्भावे एव हेतुसद्भावलक्षणोऽन्वयो निश्चेतुं शक्य. ।
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C आज सूर्योदय हुआ है ।
D चिटीयाँ अपने अण्डे लेकर भाग रही है ।
B किसी एक आम्र फल का मधुर रस उपलब्ध
हुआ ।
C कल अवश्य सूर्योदय होगा । D मेघवृष्टि होगी ।
E उस काल में वह आम्र फल सिंदुर जैसा रक्तवर्ण वाला होगा ।
उपरोक्त हेतुओं का अपने अपने साध्य के साथ कोई तादात्म्य नहीं है । एवं उन साध्यों से हेतुओं की उत्पत्ति भी नहीं हुई है । फिर भी ये हेतु अनेक आध्यों का अविनाभावि हैं, अर्थात् उन हेतुओं के होने पर साध्य के होने का अतूट नियम है, इसी नियम के प्रभाव से उन हेतुओं से अपने अपने साध्यों का आनुमानिक बोध उदित होता है । संयोग - समवाय आदि सम्बन्ध साध्य का वोध कराने में अंगभूत नहीं हो सकता है यह तो बौद्ध ने ही स्व स्वत्रन्थ में सिद्ध कर दिया है इसलिये गम्यगमकभावनियामक संबंधता का खंडन करने के लिये पृथग प्रयास करने की जरूर नहीं रहती ।
उपरोक्त रीति से बौद्धवादी कथित संबंध का निराकरण किये जाने पर [ नियमवादी कहता है कि ] अब हमारे मत से नियम नाम के सम्बन्ध की बात की जाती है ।
कार्यकारणभाव आदि सभी संबंधों के बारे में दो ही विकल्प हैं कि या तो वे नियमबद्ध हो या नियम से अबद्ध हो । नियम से अबद्ध होने पर तद्गता यानी तद् की गमकता अर्थात् साध्यबोधकता नहीं हो सकती ।
नियनविकल सभी सम्बन्ध अनुमान की उत्पत्ति के कारण नहीं है और केवल नियमरूप सम्बन्ध से ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका अनुमान न हो सके ।
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[ ज्ञातृव्यापार का नियम संबंध कैसे प्रतीत होगा ! ]
[ संदर्भ :- अनुमान से ज्ञातृव्यापार का ग्रहण नहीं हो सकता यह बात चल रही है उसमें जिन दो का संबन्ध ज्ञात रहे तब एक के दर्शन से अन्य परोक्षअर्थ की अनुमान बुद्धि होती है यह कहा था । वह संबंध नियमरूप ही हो सकता है यह सिद्ध करने के बाद अब यह बताना है कि ज्ञातृव्यापार के साथ नियम संबंध वाला दूसरा कोई नहीं है इसलिये जातृव्यापार असिद्ध है क्योंकि, ]
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